क्षमा, समानता और समता का रखें भाव : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

क्षमा, समानता और समता का रखें भाव : आचार्यश्री महाश्रमण

जिन शासन प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमण जी की पावन सन्निधि में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत दर्शनार्थ पहुंचे। डॉ. भागवत प्रायः प्रतिवर्ष पूज्यवर की सन्निधि में पहुंचते हैं। ज्ञान के महासागर आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आगम वाणी का रसास्वाद कराते हुए फरमाया कि हमारे शास्त्र, जिन्हें हम आगम कहते हैं, से अतींद्रिय ज्ञान भी प्राप्त किया जा सकता है। ये धर्म से जुड़े हुए शास्त्र हैं, जिनमें बताया गया है कि सभी आत्माएं समान हैं, इसलिए प्राणी मात्र की हिंसा नहीं करनी चाहिए। आत्मा के असंख्य प्रदेश होते हैं। आत्मा पूरे लोक में फैल सकती है और संकोच भी कर सकती है। सभी सुख चाहते हैं, जीना चाहते हैं; कोई मरना नहीं चाहता, इसलिए जीव हिंसा नहीं करनी चाहिए। पर प्राणी से अनचाहे भी हिंसा हो सकती है। साधु तो पांच महाव्रतधारी होते हैं और वे जीव हिंसा से वंचित रहते हैं। वे न हिंसा करते हैं, न करवाते हैं, और न ही हिंसा का अनुमोदन करते हैं।
साधु माधुकरी वृत्ति से आहार ग्रहण करते हैं। मैं भी संघ के नागपुर कार्यालय में गया था और वहां भिक्षा भी ली थी। साधु तो जीव हिंसा से बचते हैं, जबकि आम आदमी हिंसा से पूर्णतः बच नहीं सकता है। लेकिन अनावश्यक हिंसा से बचना चाहिए। देश की रक्षा के लिए आवश्यक हिंसा की आवश्यकता हो सकती है, लेकिन साधु शस्त्र का प्रयोग नहीं करते, चाहे उनका जीवन चला जाए। इस कारण गृहस्थ को आवश्यक हिंसा करनी पड़ सकती है, पर अनावश्यक हिंसा से गृहस्थ को बचना चाहिए। बिना मतलब किसी को तकलीफ नहीं देनी चाहिए। हमें क्षमा, समानता और समता का भाव रखना चाहिए। 'मार सके, मारे नहीं, ताको नाम मर्द।' हमारे व्यवहार और वाणी में अहिंसा का भाव हो, सभी के साथ मित्रता का भाव रखें। अहिंसा एक नीति है जो परिवार, समाज या राष्ट्र सभी में होनी चाहिए। विचार भेद, मतभेद हो सकते हैं, लेकिन मन भेद नहीं होना चाहिए। अहिंसा धर्म हर नागरिक का धर्म है।
श्री मोहनजी का समागमन हुआ है, जो एक चिंतनशील व्यक्तित्व हैं। आर.एस.एस. का सौवां वर्ष शुरू हो गया है। आचार्य महाप्रज्ञ जी के समय भी सुदर्शनजी आए थे। आपके अच्छे विचारों से धार्मिक-आध्यात्मिक दिशा मिलती है। जीवन में अहिंसा और संयम से आत्मा और समाज अच्छे बने रहते हैं। डाॅ. मोहन भागवत ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि मनुष्य जीवन के लिए जो शाश्वत बातें हैं, वे आचार्यों द्वारा कही जाती हैं। सुख की खोज में जीवन आगे बढ़ता है। सभी जीव समान हैं, लेकिन सुख-दु:ख मन की भावना पर निर्भर होते हैं। बाहरी सुख सीमित होता है, और मन की इच्छाएं कभी पूरी नहीं होती। वर्तमान में दुनिया में अनेक समस्याएं बढ़ रही हैं, और मनुष्य का जीवन संकटग्रस्त हो गया है। यदि हम अनुशासन का पालन करें, तो सुख कभी मंद नहीं होगा।
अध्यात्म हमें जीवन जीना सिखाता है और आवश्यकता पड़ने पर जीवन छोड़ना भी सिखाता है। अविद्या के परे सत्य को प्राप्त करना है। हमारे जीवन का आधार अध्यात्म है। सभी को समान रूप से जीने का अधिकार है। यदि हम सही कार्य करेंगे, तो पूरी दुनिया हमसे प्रेरित होगी। हमें सही चिंतन रखना चाहिए। गुरु का श्रद्धा से पूजन करें, उनके उपदेशों के अनुसार चलें। सत्य बोलें और हितकारी बोलें। स्वाध्याय से स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है। मन को पवित्र और सौम्य रखें। संतों की वाणी सुनकर हम अपना जीवन बदलें, जिससे परिवार, समाज और राष्ट्र में भी बदलाव आएगा। व्यवस्था समिति के अध्यक्ष संजय सुराना एवं स्वागताध्यक्ष संजय जैन ने अपनी भावनाएं व्यक्त की। व्यवस्था समिति द्वारा डॉ. मोहन भागवत का सम्मान किया गया। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।