श्रमण महावीर
भगवान् की जीवन-घटनाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति के प्रतिकूल चलना उनका सहज धर्म हो गया। हेमन्त ऋतु में भगवान् छाया में ध्यान करते। गर्मी में वे धूप में ध्यान करते। भगवान् के ये प्रयोग प्रकृति पर पुरुष की विजय के प्रतीक बन गए।
भगवान् श्रावस्ती से विहार कर हलेदुक गांव के बाहर पहुंचे। वहां हलेदुक नामक एक विशाल वृक्ष था। भगवान् उसके नीचे ध्यानमुद्रा में खड़े हो गए। एक सार्थवाह श्रावस्ती जा रहा था। उसने उस विशाल वृक्ष के पास पड़ाव डाला।
सूर्य अस्त हो चुका था। रात के चरण आगे बढ़ रहे थे। अन्धकार जैसे-जैसे गहरा हो रहा था, वैसे-वैसे सर्दी का प्रकोप बढ़ रहा था। भगवान् उस सर्दी में निर्वसन खड़े थे। वह वृक्ष ही छत, वही आंगन, वही मकान और वही वस्त्र सब कुछ वही था। सार्थ के लोग सन्यासी नहीं थे। उनके पास संग्रह भी था बिछौने, कंबलें, रजाइयां और भी बहुत कुछ। फिर भी वे खुले आकाश में कांप रहे थे। उन्होंने सर्दी से बचने के लिए आग जलाई। वे रात भर उसका ताप लेते रहे। पिछली रात को वहां से चले। आग को वैसे ही छोड़ गए।
हवा तेज हो गई। आग कुछ आगे बढ़ी। गोशालक भगवान् के साथ था। वह बोला, 'भंते! आग इस ओर आ रही है। हम यहां से चलें। किसी दूसरे स्थान पर जाकर ठहर जाएं।' भगवान् ध्यान में खड़े रहे। आग बहुत निकट आ गई। गोशालक वहां से दूर चला गया। वृक्ष के नीचे बहुत घास नहीं थी। जो थी, वह सूखी नहीं थी। इसलिए वृक्ष के नीचे आते-आते आग का वेग कम हो गया। उसकी धीमी आंच में भगवान् के पैर झुलस गए।
भगवान् स्वतंत्रता के विविध प्रयोग कर रहे थे। वे प्रकृति के
वातावरण की परतंत्रता से भी मुक्त होना चाहते थे। सर्दी और गर्मी दोनों सब पर अपना प्रभाव डालती है। भगवान् इनके प्रभाव क्षेत्र में रहना नहीं चाहते थे।
शिशिर का समय था। सर्दी बहुत तेज पड़ रही थी। बर्फीली हवा चल रही थी। कुछ भिक्षु सर्दी से बचने के लिए अगार-शकटिका के पास बैठे रहे। कुछ भिक्षु कंबलों और ऊनी वस्त्रों की याचना करने लगे। पार्श्वनाथ के शिष्य भी वातायन-रहित मकानों की खोज में लग गए। उस प्रकंपित करने वाली सर्दी में भी भगवान् ने छप्पर में स्थित होकर ध्यान किया। प्रकृति उन पर प्रहार कर रही थी और वे प्रकृति के प्रहार को अस्वीकार कर रहे थे। इस द्वन्द्व में वे प्रकृति से पराजित नहीं हुए।
भेद-विज्ञान का ध्यान
मकान पर दृष्टि आरोपित हुई तब लगा कि आकाश बंधा हुआ है। उसके स्वभाव की भाषा पढ़ी तब ज्ञात हुआ कि वह मकान से बद्ध नहीं है।
जल में डूबे हुए कमलपत्र को देखा तब लगा कि वह जल से स्पृष्ट है। उसके स्वभाव की भाषा पढ़ी तब ज्ञात हुआ कि वह जल से स्पृष्ट नहीं है।
घट, शराव, ढक्कन आदि को देखा तब लगा कि ये मिट्टी से भिन्न हैं। मिट्टी के स्वभाव की भाषा पढ़ी तब ज्ञात हुआ कि ये मिट्टी से भिन्न नहीं हैं।
तरंगित समुद्र में ज्वार-भाटा देखा तब लगा कि वह अनियत है। उसके स्वभाव की भाषा पढ़ी तब ज्ञात हुआ कि वह अनियत नहीं है।
सोने को चिकने और पीले रूप में देखा तब लगा कि वह विशिष्ट है। उसके स्वभाव की भाषा पढ़ी तब ज्ञात हुआ कि वह अविशेष है।
अग्नि से उत्तप्त जल को देखा तब लगा कि वह उष्णता से संयुक्त है। उसके स्वभाव की भाषा पढ़ी तब ज्ञात हुआ कि वह उष्णता से संयुक्त नहीं है।
स्वभाव से भिन्न अनुभूति में लगा कि आत्मा बद्ध-स्पृष्ट, अन्य, अनियत, विशेष और संयुक्त है। स्वभाव की भाषा पढ़ी तब ज्ञात हुआ कि वह अबद्ध-अस्पृष्ट, अनन्य, ध्रुव, अविशेष और असंयुक्त है।