संबोधि
सम्यक्त्व का शरीर सहज, सुन्दर होता है। जिसे वह प्राप्त है उसकी सुगंध स्वतः ही प्रस्फुटित होती है। उसका जीवन स्वयं ही एक पाठ है। वह जो कुछ करता है समभाव से भिन्न नहीं करता, दिखावा नहीं करता। जिसका होना ही धर्म को अभिव्यक्त करता है, उसका व्यवहार, आचरण भीतर से स्फूर्त होता है। कथनी और करनी में वैमनस्य का दर्शन नहीं होता। स्वभाव का स्वाद जिसने चख लिया है, वह फिर उससे भिन्न जी नहीं सकता। जो केवल बाहर से सम्यक्त्व का चोला पहन लेते हैं, उनका जीवन इनसे मेल नहीं खाता। वे अपने स्वार्थ के लिए अन्यथा आचरण कर धर्म को भी दूषित कर देते हैं। सम्यक्त्व के ये भूषण उसके शरीर की आभा को और प्रस्फुटित कर देते हैं। सौम्यता, सौहार्द, करुणा, निश्छलता और सत्यपूर्ण व्यवहार धर्म की शोभा में चार चांद लगा देते हैं।
६. भारवाही यथाश्वासान्, भाराक्रान्तेऽश्नुते यथा।
तथारम्भभराक्रान्त, आश्वासान् श्रावकोऽश्नुते ।।
जिस प्रकार भार से लदा हुआ भारवाहक विश्राम लेता है, उसी प्रकार आरंभ-हिंसा के भार से आक्रांत श्रावक विश्राम लेता है।
७. इन्द्रियाणामधीनत्वाद्, वर्ततेऽवद्यकर्मणि।
तथापि मानसे खेदं, ज्ञानित्वाद् वहते चिरम्॥
इंद्रियों के अधीन होने के कारण वह पापकर्म-हिंसात्मक क्रिया में प्रवृत्त होता है, फिर भी ज्ञानवान् होने के कारण वह उस कार्य में आनंद नहीं मानता, उदासीन रहता है।
८. आश्वासः प्रथमः सोऽयं, शीलादीन् प्रतिपद्यते।
सामायिकं करोतीति, द्वितीयः सोऽपि जायते॥
व्रत आदि स्वीकार करना श्रावक का पहला विश्राम है। सामायिक करना दूसरा विश्राम है।
९. प्रतिपूर्ण पौषधञ्च, तृतीयः स्याच्चतुर्थकः।
संलेखनां श्रितो यावज्जीवमनशनं सृजेत्॥
उपवासपूर्वक पौषध करना तीसरा विश्राम है और संलेखनापूर्वक आमरण अनशन करना चौथा विश्राम है।
मकान, धर्मशाला, वृक्ष, नदी तट आदि शारीरिक विश्राम स्थल है। धर्म आत्म-विश्राम का केन्द्र है। गृही जीवन आरंभ-व्यस्त जीवन है। वहां आत्म साधना के लिए अवकाश कम
मिलता है।