पूर्णतया परमार्थ को समर्पित है मोक्ष के इच्छुकों की पारमार्थिक शिक्षण संस्था : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

पूर्णतया परमार्थ को समर्पित है मोक्ष के इच्छुकों की पारमार्थिक शिक्षण संस्था : आचार्यश्री महाश्रमण

परम पुरुष आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फ़रमाया कि जीवों के कर्म बंधन और उनके कर्मों के परिणाम को जानना आवश्यक है। प्राणी दुःख और सुख का अनुभव करता है, इसके पीछे कारण कर्म ही होता है। 'आचारांग भाष्य' में कहा गया है कि कर्म ही दुःख का कारण है। भौतिक सुख भी कर्म के प्रभाव से ही प्राप्त होता है, और आध्यात्मिक सुख कर्म के विलय से प्राप्त होता है। आंतरिक सुख कर्म के निर्जरण से मिलता है, जिसके लिए संवर और निर्जरा की आवश्यकता होती है। ये तत्व परमार्थ से जुड़े हैं और इनसे परम उद्देश्य मोक्ष प्राप्त हो सकता है।
पारमार्थिक शिक्षण संस्था के द्वितीय अधिवेशन के सन्दर्भ में आचार्य प्रवर ने कहा कि पारमार्थिक शिक्षण संस्था ने 75 वर्षों का सफर तय कर लिया है। यह संस्था आचार्य तुलसी के समय से मुमुक्षुओं के मार्गदर्शन के लिए कार्य कर रही है। यह संस्था पूर्णतया परमार्थ को समर्पित है। यहां रहने वालों का उद्देश्य साध्वी, मुनि और समणी की दीक्षा के रूप में अपना कल्याण होता है। इसे मुमुक्षु संस्था भी कहा जा सकता है, यह मोक्ष के इच्छुकों की संस्था है। आचार्यश्री ने बताया कि उन्हें भी गुरुदेव तुलसी के समय में इस संस्था से जुड़ने का अवसर मिला था और उन्हें संस्कृत व्याकरण पढ़ाने का कार्य भी सौंपा गया था।
मुमुक्षु पुरुष भी इस संस्था से जुड़कर साधु बनते हैं। वर्तमान साध्वीप्रमुखाजी और साध्वीवर्या भी इसी संस्था से आई है। गुरुदेव तुलसी का विचार था कि दीक्षा से पहले शिक्षा, परीक्षा और समीक्षा होनी चाहिए। मुमुक्षु संख्या वृद्धि और गुणवत्ता वृद्धि का प्रयास होना चाहिए। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि ये मुमुक्षु तेरापंथ के भविष्य हैं, और यहां से साधु बनने की नींव तैयार होती है। आपने बताया कि पहले यह संस्था अस्थायी थी, जो बाद में स्थायी हो गई। स्वयं साध्वीप्रमुखाजी ने भी छह वर्ष इस संस्था में रहकर ज्ञानार्जन किया था। मुख्यमुनि श्री महावीरकुमार जी ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि यह संस्था 75 वर्षों से निरंतर गतिमान है और यहां मुमुक्षु रूप में शिक्षण दिया जाता है। जो मोक्ष या कल्याण का इच्छुक है, उसके लिए चार गुण - लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य - आवश्यक हैं। साध्वीवर्या संबुद्धयशाजी ने अपने वक्तव्य में कहा कि परम आनंद की प्राप्ति ही अध्यात्म की प्राप्ति है, और इसे प्राप्त करने के लिए संन्यास का मार्ग अपनाया जाता है। कार्यक्रम की शुरुआत में मुनि उदितकुमारजी ने दीपावली पर तेले करने की प्रेरणा दी। कार्यक्रम के शुभारम्भ में पारमार्थिक शिक्षण संस्था के अध्यक्ष बजरंग जैन, समणी ऋजुप्रज्ञाजी, मुमुक्षु अंजलि, मुमुक्षु वीनू और मुमुक्षु शेफाली ने अपने विचार व्यक्त किए। मुमुक्षु बहनों ने प्रस्तुतियां दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।