हिंसा और प्रमाद बनाते हैं व्यक्ति को दुःखी : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

हिंसा और प्रमाद बनाते हैं व्यक्ति को दुःखी : आचार्यश्री महाश्रमण

धर्म दिवाकर महातपस्वी आचार्य श्री महाश्रमण जी ने आगम वाणी का रसास्वादन कराते हुए फ़रमाया - हमारी दुनिया में दुःख का अनुभव देखने को मिलता है। व्यक्ति के जीवन में अनेक दुःख हो सकते हैं, जैसे पारिवारिक, आर्थिक, शारीरिक और मानसिक समस्याएँ। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा, जिसके जीवन में कष्ट न आया हो। दुःख में भी विभिन्नता हो सकती है। दुःख की उत्पत्ति असंयम से होती है। असंयम अर्थात् हिंसा आदि से उत्पन्न प्रवृत्तियाँ। प्रवृत्तियों के पीछे वृत्तियाँ होती हैं, जैसे कि राग-द्वेष रूपी वृत्ति। किसी के मन में पहले युद्ध उत्पन्न होता है, फिर वह कर्म में बदलता है। इसलिए हिंसा और प्रमाद व्यक्ति को दुःखी बना सकते हैं। दुःख असंयम से ही पैदा होते हैं। इन्द्रियों और वाणी के असंयम से भी दुःख उत्पन्न हो सकता है। मन और शरीर का असंयम भी दुःख का कारण बन सकता है। किसी पर हँसना या मजाक उड़ाना भी दुःख का कारण हो सकता है। व्यक्ति को असंयम से बचना चाहिए तथा मन, वाणी, शरीर और इन्द्रियों पर संयम रखना चाहिए। ‘‘संयम खलु जीवनम्’’ अर्थात संयम ही जीवन है। गृहस्थों को भी झूठ, चोरी आदि से बचने का प्रयास करना चाहिए।
साध्वीवर्या ने आज के दिन संयम में प्रवृत्त होकर चारित्र रत्न को जसोल में प्राप्त किया था। सम्यकत्व और चारित्र जिसे प्राप्त हो जाते हैं, वह महान धनवान बन जाता है। ये दोनों भव-भव के दुःख को दूर करने वाले कल्याणकारी हैं। पूज्यवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए, जिसमें महेन्द्र गेलड़ा ने इस चतुर्मास में दूसरे मासखमण तप का प्रत्याख्यान ग्रहण किया। तेरापंथ महिला मंडल, सूरत द्वारा 'जैनम जयतु शासनम्' कार्यक्रम के अंतर्गत जैन महिला सम्मेलन का आयोजन किया गया। पूज्यवर ने फ़रमाया कि जैन शासन में तीर्थंकर का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। वे शासन के महानायक होते हैं। भगवान महावीर इस अवसर्पिणी काल के अंतिम तीर्थंकर थे। तीर्थ के चार स्तम्भ हैं – साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका। जैन शासन में विभिन्न सम्प्रदाय हैं। प्रत्येक का अपना सिद्धांत और मान्यता है। इन भेदों में भी अभेद को देखना चाहिए। नमस्कार महामंत्र, महाव्रत, गुणस्थान और तत्वार्थ सूत्र सभी में मान्य हैं। भक्तामर में भी जैन एकता दिखाई देती है। भले ही भेद हों, परन्तु मूल मैत्रीभाव रहना चाहिए।
तत्वज्ञान, धार्मिकता और संस्कार सभी में वृद्धि होनी चाहिए। महिलाएँ बच्चों को संस्कारी बनाएँ, मांसाहार से परिवार को बचाएँ। स्वयं का भी विकास करें और शिक्षा का प्रसार करें। महिलाओं में अनेक व्यवस्थात्मक क्षमताएँ होती हैं, जिनका विकास होना चाहिए। साध्वीप्रमुखाश्री जी ने भगवान महावीर के सिद्धांतों की वर्तमान में प्रासंगिकता पर प्रेरणा प्रदान की। तेरापंथ महिला मंडल, सूरत ने मंगलाचरण किया। मंडल अध्यक्षा चंदा भोगर ने स्वागत स्वर प्रकट किए। विभिन्न जैन महिला मंडलों की बहनें इस सम्मेलन में उपस्थित हुईं। इस संदर्भ में तेरापंथ महिला मण्डल-सूरत की पूर्व अध्यक्ष श्रीमती मधु देरासरिया ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।