मृत्यु से अमरत्व की प्राप्ति की साधना है दीक्षा : आचार्यश्री महाश्रमण
तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम् अधिशास्ता आचार्य श्री महाश्रमणजी ने फरमाया कि पुनर्जन्मवाद धार्मिक जगत का एक सिद्धांत है। आत्मा का पुनर्जन्म हुआ भी है और पुनर्जन्म होता भी रहेगा, जब तक आत्मा मोक्ष को प्राप्त नहीं कर लेती। कई लोगों को पूर्वजन्म की जानकारी भी हो जाती है। जाति-स्मृति ज्ञान का एक सिद्धांत है, जो मतिज्ञान का एक प्रकार है। जाति-स्मृति ज्ञान का अर्थ है, पिछले जन्म का ज्ञान। इसमें एक नहीं बल्कि अनेक जन्मों का ज्ञान होता है। पुनर्जन्म कहाँ होगा, यह बहुत कम लोग बता पाते हैं, क्योंकि जो घटित हो चुका है, उसकी स्मृति हो सकती है, लेकिन जो हुआ ही नहीं है, उसकी स्मृति होना मुश्किल है। अगर अवधिज्ञान जैसे विशेष ज्ञान का अर्जन हो जाए तो यह ज्ञात किया जा सकता है।
'आयारो' में बताया गया है कि बार-बार जन्म कौन लेता है? इसमें दो बातें बताई गई हैं- मायावी और प्रमादी व्यक्ति बार-बार जन्म लेता है। भीतर में कर्म और कषाय के कारण जन्म-मरण की परंपरा चलती रहती है। धर्म की साधना का उद्देश्य है अमरत्व की प्राप्ति करना, अर्थात् ऐसी स्थिति प्राप्त करना जिसमें न जन्म हो, न मृत्यु, न राग हो, न द्वेष, न शरीर हो, न वाणी और न ही मन। आत्मा की शुद्ध स्थिति प्राप्त होती है। जब तक व्यक्ति मन के घेरे में है, तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता।
सिद्ध आत्माएं अमर होती हैं। सिद्धों का पुनर्जन्म नहीं होता। वे शाश्वत काल के लिए शुद्ध हो जाते हैं। यदि सिद्ध भगवान को ईश्वर मान लें तो भी उनका अवतार नहीं होता, क्योंकि वे सदा शुद्ध रहते हैं। प्रमाद भी मोह-ग्रस्त आत्मा में ही होता है। माया करने वाला, छल-कपट में फंसा हुआ, प्रमादी और कषाय-ग्रस्त व्यक्ति ही बार-बार जन्म-मरण के चक्र में फँसता है। भगवान महावीर की आत्मा ने भी अनंत-अनंत जन्म-मरण किए थे। हमारी आत्मा ने भी अनंत-अनंत जन्म-मरण किए होंगे, लेकिन अब प्रयास करें कि ज्यादा जन्म लेना न पड़े। असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, और मृत्यु से अमरत्व की ओर जाने का प्रयास करें।
साधुपन की साधना, मृत्यु से अमरत्व की प्राप्ति की साधना होती है। आज साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी का दीक्षा दिवस है। आज से 32 वर्ष पूर्व उन्होंने समणी से साध्वी दीक्षा ली थी। कल साध्वीवर्या का दीक्षा दिवस था और आज साध्वीप्रमुखाजी का दीक्षा दिवस है। यह दीक्षा मृत्यु से अमरत्व की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ने की साधना है। हमें माया और छल-कपट से जितना हो सके बचने का प्रयास करना चाहिए। गृहस्थ भी इनसे बचने का अधिकाधिक प्रयास करें। सरलता और सच्चाई के मार्ग पर चलें, क्योंकि सच्चाई की साधना के लिए सरलता आवश्यक है। सरल आत्मा की जन्म-मरण की परंपरा कम हो सकती है।
अगर अच्छा कुल मिलता है, धर्म का वातावरण होता है और साधु बनने का अवसर मिलता है, तो आत्मा कल्याण की ओर अग्रसर हो सकती है। धर्म भी दो प्रकार का होता है – कालबद्ध और कालातीत। गृहस्थ जीवन में दोनों प्रकार के धर्म का समावेश होना चाहिए। संसार में सम्यकत्व और चारित्र से बढ़कर कुछ नहीं है। ये दो अनमोल रत्न हैं और इनके सामने भौतिक वस्तुएँ तुच्छ हैं। सम्यकत्व और संयम रूपी रत्न सुरक्षित रहें। हमें माया और प्रमाद से बचते हुए जन्म-मरण की परंपरा से मुक्ति का प्रयास करना चाहिए। पूर्व न्यायाधीश डॉ. बसंतीलाल बाबेल ने अपनी 311वीं पुस्तक पूज्यवर को समर्पित कर अपनी भावाभिव्यक्ति दी। विकास परिषद् सदस्य पदमचंद पटावरी ने भी अपनी भावनाएँ व्यक्त की। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।