संबोधि
मनुष्य का मन मोह-प्रधान है। उसे भोग, वासना और विषयों से जितना अनुराग होता है उतना धर्म से नहीं। धर्म के बिना आत्मा को शांति नहीं मिलती। श्रावक संसार के कार्यों में उलझा हुआ भी धर्म को विस्मृत नहीं करता।
वह अपने और पराये व्यक्तियों के लिए हिंसा करता हुआ भी उसमें लिप्त नहीं होता। वह मानता है कि मेरी दुर्बलता है। वह उदासीन होकर काम करता है। उसका केन्द्र बिन्दु आत्मा है। वह आत्म-शांति के लिए जो अवलंबन लेता है वे ही विश्राम-स्थल हैं।
जैसे भारवाहक के चार विश्राम स्थल है:
१. गठरी को बाएं से दाएं कंधे पर रखना।
२. देह-चिंता से निवृत्त होने के लिए उसे नीचे रखना।
३. सार्वजनिक स्थान में विश्राम करना।
४. स्थान पर पहुंचकर उसे उतार देना।
वैसे ही श्रावक के चार विश्राम हैं:
१. शीलव्रत, गुणव्रत तथा उपवास ग्रहण करना।
२. सामायिक और देशावकाशिक व्रत लेना।
३. अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा को प्रतिक्रमण पूर्वक पौषध।
४. मारणांतिक संलेखना करना।
१०. परिग्रहं प्रहास्यामि, भविष्यामि कदा मुनिः।
त्यक्ष्यामि च कदा भक्तं, ध्यात्वेदं शोधयेन्निजम्।।
'मैं कब परिग्रह छोडूंगा, मैं कब मुनि बनूंगा, मैं कब भोजन का
परित्याग करूंगा' श्रावक इस प्रकार के चिंतन अथवा मनोरथ से आत्मशोधन करे।
श्रावक श्रावकत्व में ही संतुष्ट रहना नहीं चाहता। मुमुक्षु व्यक्ति का साध्य होता है-पूर्ण आत्म-स्वातन्त्र्य। आत्मा की स्वतंत्रता के लिए अर्थ और काम बंधन हैं। श्रावक परिग्रह के परिमाण से अपरिग्रह की ओर बढ़ना चाहता है। मुनि-जीवन के लिए पूर्ण अकिंचनता अपेक्षित है। अतः उसका पहला संकल्प है परिग्रह त्याग का। धन, स्वर्ण, चांदी, मुक्ता, दास दासी आदि सभी परिग्रह हैं। शरीर के प्रति जो आसक्ति है वह उसे छोडने का संकल्प करता है। परिग्रह बंधन है। एक कवि के शब्दों में देखिए अर्थ की उत्पत्ति में दुःख उठाना होता है। उत्पन्न अर्थ की सुरक्षा करनी होती है। उसमें भी दुःख है। आय में दुःख है और व्यय में भी दुःख है। अतः अर्थ दुःख का स्थान है। श्रावक परिग्रह से मुक्त होने के लिए प्रतिदिन यह संकल्प करता है कि कब मैं अल्पमूल्य या बहुमूल्य परिग्रह का प्रत्याख्यान करूंगा।