श्रमण महावीर

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श्रमण महावीर

भोजन की वेला में वे केवल खाते ही थे- न स्वाद की ओर ध्यान देते, न चिंतन करते और न बातचीत करते। भगवान् आवश्यक क्रियाओं से निवृत्त होने पर आत्ममूर्ति हो जाते। वर्तमान क्रिया के प्रति सर्वात्मना समर्पित होकर ही कोई व्यक्ति तन्मूर्ति हो सकता है भगवान ने तन्मूर्ति होने के लिए चेतना की समग्र धारा को आत्मा की ओर प्रवाहित कर दिया। मन, विचार, अध्यवसाय, इन्द्रिय और भावना-ये सब एक ही दिशा में गतिशील हो गए।
पुरुषाकार आत्मा का ध्यान
आत्मा दृश्य नहीं है, फिर उसका ध्यान कैसे किया जाए? यह प्रश्न आज भी उठता है, भगवान् के सामने भी उठा होगा। उन्होंने देखा, आत्मा समूचे शरीर में व्याप्त है। शरीर का एक भी अणु ऐसा नहीं है, जिसमें चेतना अनुप्रविष्ट न हो। पुरुष समग्रतः आत्ममय है, इसलिए भगवान् ने पुरुषाकार आत्मा का ध्यान किया। उन्होंने शरीर के हर अवयव में आत्मा का दर्शन किया। इससे देहासक्ति के दूर होने में बहुत सहायता मिली। मन राग के रथ पर आरूढ़ होकर फैलता है। वैराग्य से सिमटकर वह अपने केन्द्र-बिन्दु में स्थित हो जाता है। भगवान् वैराग्य और संवर, अभ्यास और अनुभूति के द्वारा मन की धारा को चैतन्य के महासिन्धु में विलीन कर रहे थे।
कहीं वंदना और कहीं बंदी
विश्व के हर अंचल में विविधता का साम्राज्य है। एक-रूप कौन है और एक-रूपता कहां है? जीवन की धारा अनगिन घाटियों और गढ़ों को पार कर प्रवाहित हो रही है। केवल समतल पर अंकित होने वाले चरण-चिह्न कहीं भी अस्तित्व में नहीं है। १. भगवान् उत्तर वाचाला से प्रस्थान कर श्वेतव्या पहुंचे। राजा प्रदेशी ने भगवान् की उपासना की। भगवान् की दृष्टि में राजा की उपासना से अपनी उपासना का मूल्य अधिक था। इसलिए वे पूजा में लिप्त नहीं हुए। वे श्वेतव्या से विहार कर सुरभिपुर की ओर आगे बढ़ गए। मार्ग में पांच नैयक राजा मिले। वे राजा प्रदेशी के पास जा रहे थे। उन्होंने भगवान् को आते देखा। वे अपने-अपने रथ से नीचे उतरे। भगवान् को वन्दना कर आगे चले गए।
२. भगवान् एक बार पुरिमताल नगर में गए। वहां वग्गुर नाम का श्रेष्ठी रहता था। उसकी पत्नी का नाम था भद्रा। वह पुत्र के लिए अनेक देवी-देवताओं की मनौती कर रही थी। फिर भी उसे पुत्र-लाभ नहीं हुआ। एक बार वग्गुर दम्पती उद्यान में क्रीड़ा करने गया। वहां उसने अर्हत् मल्ली का जीर्ण-शीर्ण मन्दिर देखा। श्रेष्ठी ने संकल्प किया- 'यदि मेरे घर पुत्र उत्पन्न हो जाये तो मैं इस मन्दिर का नव-निर्माण करा दूंगा।' संयोग की बात है, पुत्र का जन्म हो गया। श्रेष्ठी ने मन्दिर का पुनरुद्धार करा दिया। एक दिन वग्गुर दम्पती पूजा करने मन्दिर में जा रहा था। उस समय भगवान् महावीर उस उद्यान में ध्यान कर रहे थे। एक दिव्य आत्मा ने देखा। वह बोल उठी, 'कितना आश्चर्य है कि वग्गुर दम्पती साक्षात् भगवान् को छोड़ मूर्ति को पूजने जा रहा है। वग्गुर दम्पती को अपनी भूल पर अनुताप हुआ। उसकी दिशा बदल गई। वह भगवान् की आराधना में तल्लीन हो गया।
३. भगवान् सिद्धार्थपुर से प्रस्थान कर वैशाली पहुंचे। वे नगर के बाहर कायोत्सर्ग की मुद्रा में खड़े थे। उनकी दृष्टि एक वस्तु पर टिकी हुई थी, स्थिर और अनिमेष। बच्चों ने उन्हें देखा। वे डर गये। वे इधर-उधर घूमकर भगवान् को सताने लगे। उस समय राजा शंख वहां पहुंच गया। वह महाराज सिद्धार्थ का मित्र था। वह भगवान् को पहचानता था। उसने भगवान् को उस विघ्न से मुक्त किया। वह भगवान् को वन्दना कर अपने आवास की ओर चला गया।