अहिंसा और अपरिग्रह की दिशा में कदम बढ़ाकर भयमुक्त बनें : आचार्यश्री महाश्रमण
परमार्थ के स्रोत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि 'आयारो' आगम में कहा गया है - आदमी कई बार भय का अनुभव करता है। भय एक संज्ञा है। चार संज्ञाएं बताई गई हैं, कहीं दस संज्ञाएं भी बताई गई हैं। उनमें दूसरी संज्ञा है - भय संज्ञा। प्राणी डरता है, उसे दुःख, भय लगता है। भयग्रस्त आदमी हिंसा और मृषावाद की ओर जा सकता है। आयारो में कहा गया है कि जो आदमी आरंभजीवी है, अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए आरंभ करता है, वह हिंसा में प्रवृत्त हो सकता है और परिग्रह भी इकट्ठा कर सकता है। जहां हिंसा और परिग्रह होते हैं, वहां भय भी हो सकता है। आदमी के पास धन न हो, तब भी वह दुःखी हो सकता है, और धन हो तब भी वह दुःखी हो सकता है। गृहस्थ जीवन में परिग्रह की आवश्यकता होती है, परंतु परिग्रह का सीमांकन जितना हो सके, उतना करना चाहिए। साधु के जीवन में तो अपरिग्रह महाव्रत होता है। इसलिए साधु के मालिकाना में न तो कोई जमीन, न एक रुपया होता है। साधु तो अकिंचन होता है।
जो व्यक्ति महारंभ और महापरिग्रह में प्रवृत्त होता है, उसमें भय उत्पन्न हो सकता है। हर धर्म अहिंसा और सत्य को श्रेष्ठ मानता है। विभिन्न धर्मों में कई बातों में समानता मिलती है, तो कई बातों में सैद्धांतिक मतभेद भी हो सकते हैं। भेद है, लेकिन अभेद भी सामने आ सकता है। पूर्णत: अहिंसक बनने के लिए परिग्रह को भी छोड़ना आवश्यक है। हिंसा और परिग्रह भाई-बहन की तरह हैं। अपरिग्रह परम धर्म है। जो संविभाग नहीं करता, उसे मोक्ष नहीं होता। आदमी अहिंसा और अपरिग्रह की दिशा में कदम बढ़ाए और भयमुक्त बनें। सूरत ज्ञानशाला से ग्रंथ प्रकाश मेहता और आराध्य चपलोत ने भावों की अभिव्यक्ति दी और चौबीसी के गीत का संगान किया। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।