ज्ञान में गहराई और साधना में ऊंचाई होनी चाहिए : आचार्यश्री महाश्रमण
वर्तमान के वर्धमान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल देशना प्रदान करने से पूर्व उपस्थित जन मेदिनी को प्रेक्षाध्यान का अभ्यास करवाया। 'आयारो' आगम वाणी की अमृत वर्षा कराते हुए परम पूज्य ने फरमाया कि दो शब्द हैं - 'अग्र' और 'मूल'। उपदेश दिया गया है कि 'हे धीर! तूं अग्र और मूल का विवेक कर।' अग्र ऊपरी भाग होता है, सतही भाग होता है, और एक गहराई वाला भाग होता है। उच्चता को अग्र के रूप में तो गंभीरता को मूल के रूप में देख सकते हैं। पर्वत में ऊंचाई होती है, पर गहराई नहीं होती, जबकि समुद्र में गहराई होती है, ऊंचाई नहीं होती। मनस्वी व्यक्ति ऐसा होता है कि उसमें ऊंचाई भी होती है और गहराई भी होती है। हमें ध्यान देना चाहिए कि हमारे जीवन में पर्वत सी ऊंचाई और समुद्र जैसी गहराई कैसे आ सकती है। सिद्ध पुरुषों के लिए कहा गया है कि वे चंद्रमा से भी अधिक निर्मल, सूर्य से भी अधिक प्रकाशवान और सागर से भी अधिक गहरे होते हैं।
हमें भी निर्मलता और प्रकाश की ओर अग्रसर होना चाहिए, और अच्छी गंभीरता को आत्मसात् करने का प्रयास करना चाहिए। मनुष्य में ज्ञान के संदर्भ में गहराई और साधना की ऊंचाई होनी चाहिए। पूज्यप्रवर ने अपने एक स्वप्न में हुई गुरुदेव श्री तुलसी के साथ वार्ता के बारे में बताते हुए कहा कि गुरुदेव ने मुझसे पूछा कि तुम्हें नब्बे वर्ष प्राप्त हो गए क्या? मैंने कहा गुरुदेव अभी तो आप को नब्बे वर्ष नहीं आएं हैं तो मुझे कैसे आ सकते हैं? तब गुरुदेव श्री तुलसी ने शिक्षा प्रदान करते हुए मुझे फ़रमाया - 'जब चिंतन करना हो तो नब्बे वर्ष जितना प्रौढ़ - अनुभवी बनकर के चिंतन करना चाहिए।' पूज्य प्रवर ने आगे फ़रमाया - हमारे आचरणों में ऊंचाई होनी चाहिए। किसी भी परिस्थिति का अग्रभाग और मूलभाग समझ लेने पर उसे संभाला जा सकता है। मोहनीय कर्म को मूल मान लें और शेष कर्म को अग्र मान लें। राग-द्वेष को मूल मान लें और कर्मों के बंधन को अग्र मान लें।
आज कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी है, दीपमालिका का पर्व है, जो ज्योति पर्व भी है। कल अमावस्या भगवान महावीर का निर्वाण दिवस है। दीपावली का पर्व भगवान महावीर और भगवान राम से जुड़ा हुआ है। महापुरुषों का आश्रय पाकर तिथि भी धन्य हो जाती है। अमावस्या भी महोत्सव बन गई जब दीपकों ने उसे सुशोभित किया। पूज्यप्रवर ने 'ज्योति का अवतार बाबा, ज्योति ले आया' गीत का आंशिक संगान करवाया। आचार्यवर ने कहा - मिट्टी के दीपक जलें या न जलें, लेकिन भीतर ज्ञान के दीप जलें, यह महत्वपूर्ण है। आगम का दीपक जलना चाहिए।
आचार्यश्री ने अनेक संतों को अपने पास बुलाया और ज्ञान के संदर्भ में प्रेरणा देते हुए अहिंसा, ज्ञान, शांति आदि की प्रेरणा प्रदान की। न्यारा में जाने वाले संतों को भी प्रेरणा प्रदान की। मुनि आकाशकुमारजी को अग्रणी संत के रूप में वंदना कराई और अच्छा कार्य करने की प्रेरणा प्रदान की। इसी प्रकार छोटी साध्वियों को भी प्रेरणा प्रदान की। आचार्यश्री ने चतुर्मास की सम्पन्नता के उपरान्त 16 नवम्बर को लगभग 8.40 बजे प्रस्थान करने की बात भी बताई। पूज्यप्रवर ने फ़रमाया कि एकम तो साधु के लिए अणपूछा मुहूर्त है। साधु-साध्वियों को विहार करने की तैयारी करने की प्रेरणा प्रदान की। नवदीक्षित साध्वियों ने संतों को वंदन किया तो मुनि धर्मरुचिजी ने संतों की ओर से उनके प्रति मंगलकामना अभिव्यक्त की।
आचार्य प्रवर ने मुख्यमुनिश्री को मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में कुर्सी की बक्सीस प्रदान करवाते हुए फ़रमाया - 'मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में जब भी मुख्य मुनि आते हैं, तो उन्हें कुर्सी पर बिठाना चाहिए।' चतुर्दशी पर पूज्यवर ने हाजरी का वाचन करवाया और प्रेरणा दी कि धर्म संघ की मर्यादा के प्रति जागरूक रहें। साध्वी वृन्द ने दीपावली के अवसर पर गीत का समूह में सुमधुर संगान किया। पूज्यवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।