अपनी आत्मा को ही बनाएं अपना मित्र : आचार्यश्री महाश्रमण
सूरत का ऐतिहासिक चातुर्मास और इस चातुर्मास में पूज्यवर के सान्निध्य में तीसरी बार जैन भागवती दीक्षा का आयोजन हुआ। संयमप्रदाता युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आगमवाणी की व्याख्या करते हुए फरमाया- 'पुरुष! तू ही तेरा मित्र है, फिर बाहर मित्र को क्यों खोज रहे हो?' पूज्यवर ने कहा - दो नय बताए गए हैं—निश्चय नय और व्यवहार नय। एक बात निश्चय नय से ठीक है, तो दूसरी बात व्यवहार नय से। भंवरा काला भी होता है, और पाँच वर्ण वाला भी होता है। यह व्यवहार नय और निश्चय नय की बात है। दोनों बातें सही हैं। दृष्टिकोण पकड़ में आ जाए, तो अनेकांत की बात हो सकती है।
दुनिया में मित्र हैं, यह व्यवहार नय की बात है। निश्चय नय से अपनी आत्मा ही अपना मित्र है। अपनी आत्मा को ही अपना मित्र बना लो। अनेक बातें हैं, उनमें एक बात यह है कि साधु बन जाओ, तुम्हारी आत्मा मित्र हो जाएगी। मित्र के लक्षण हैं— नि:संकोच एक-दूसरे की वस्तु लेना-देना, मन की गुप्त बात मित्र के सामने खोलना और उसकी गुप्त बात पूछना। मित्र के घर बिना निमंत्रण भोजन करना और उसे भोजन कराना। निश्चय नय से आत्मा में ही ज्यादा ध्यान दें। उम्र के साथ निवृत्ति की ओर जाएं और आत्मा को मित्र बनाएं। साधना अच्छी चले। अपनी आत्मा का हित हो। मानव जीवन में उम्र के साथ औचित्य से ध्यान देकर जीवन शैली बदलें और साधना की ओर अग्रसर हों। जो कर सको, वो कर लो। 'किया सो काम, भजे सो राम।'
दीक्षा समारोह
पूज्यवर ने दीक्षार्थी और उनके परिवारजनों से लिखित और मौखिक आज्ञा ली। भगवान महावीर, आचार्य भिक्षु और उनकी उत्तरवर्ती परंपरा को श्रद्धा से स्मरण कर, नमस्कार महामंत्र के पावन स्मरण से मुमुक्षु चंद्रप्रकाश को तीन करण, तीन योग से सामायिक पाठ के उच्चारण के साथ यावज्जीवन के लिए सावद्य प्रवृत्ति का त्याग करवाकर दीक्षा प्रदान की। पूज्यवर ने नव दीक्षित मुनि को आर्षवाणी से अतीत की आलोचना करवाई। पूज्यवर द्वारा केश लोच एवं रजोहरण प्रदान के पश्चात् नामकरण संस्कार करते हुए नया नाम 'मुनि चन्द्रप्रभकुमार' प्रदान किया गया। पूज्यवर ने नवदीक्षित मुनि को प्रेरणा प्रदान करते हुए मुख्य मुनि प्रवर के निकट रहने की कृपा करवाई।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि आज के तकनीकी युग में जब एक युवक अध्यात्म के पथ पर बढ़कर संयम स्वीकार करता है, तो यह बड़ा महत्व रखता है। जो यह समझता है कि अध्यात्म ही हमें त्राण देने वाला है, वही संयम के पथ पर अग्रसर हो सकता है। अध्यात्म का पथ पारस पत्थर से भी अधिक मूल्यवान होता है। अध्यात्म के पारस पत्थर से स्व और पर का कल्याण किया जा सकता है। अशुभ योगों की निवृत्ति और शुभ योगों में प्रवृत्ति ही दीक्षा है। जब व्यक्ति के चारित्र मोह का क्षय होता है, तब वह संयम के पथ पर बढ़ता है। तेरापंथ धर्म संघ में दीक्षा का महत्व है। यहां पहले शिक्षा, फिर समीक्षा और उसके बाद दीक्षा होती है। दीक्षा संस्कार से पूर्व मुमुक्षु कल्प और मुमुक्षु प्रीत ने दीक्षार्थी चन्द्रप्रकाश का परिचय दिया। मुमुक्षु ने भी अपनी भावना श्रीचरणों में अभिव्यक्त की। आज्ञा पत्र का वाचन पारमार्थिक शिक्षण संस्था के अध्यक्ष बजरंग जैन ने किया। दीक्षार्थी चन्द्रप्रकाश के पिता लक्ष्मीचंद चौपड़ा और माता लीलादेवी ने पूज्यवर को लिखित में आज्ञा पत्र समर्पित किया। बारह वर्षीय यश महनोत ने पूज्यवर से 31 की तपस्या के प्रत्याख्यान ग्रहण किए। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।