श्रमण महावीर
४. भगवान् कुमाराक सन्निवेश से चोराक सन्निवेश पहुंचे। वहां चोरों का बड़ा आतंक था। उसके प्रहरी बड़े सतर्क थे। उनकी आँखों से बचकर कोई भी आदमी सन्निवेश में नहीं पुहंच पाता था। प्रहरियों ने भगवान् को देखा और परिचय पूछा। भगवान् मौन रहे। प्रहरी कुद्ध हो गए। उस समय गोशालक भगवान् के साथ था। वह भी मौन रहा। प्रहरी और बिगड़ गए। वे दोनों को सताने लगे। एक ओर मौन और दूसरी ओर उत्पीड़न दोनों लम्बे समय तक चले। सन्निवेश के लोगों ने यह देखा। बात आगे से आगे फैलती गई। उस सन्निवेश में दो परिव्राजिकाएं रहती थीं। एक का नाम था सोमा और दूसरी का नाम था जयंती। वे भगवान् पार्श्व की परम्परा में साध्वियां बनी थीं। वे साधुत्व की साधना में असमर्थ होकर परिव्राजिकाएं बन गई थीं। उन्होंने सुना कि आज सन्निवेश के प्रहरी दो तपस्वियों को सता रहे हैं। प्रहरी उनसे परिचय मांग रहे हैं और वे अपना परिचय नहीं दे रहे हैं। यही उनके सताने का हेतु है। परिव्राजिकाओं ने सोचा, 'ये तपस्वी कौन हैं? भगवान् महावीर इसी क्षेत्र में विहार कर रहे हैं। वे साधना में तन्मय होने के कारण बहुत कम बोलते हैं। कहीं वे ही तो नहीं हैं?'
दोनों परिव्राजिकाएं घटनास्थल पर आई। उन्होंने देखा, भगवान् महावीर मौन और शांत खड़े हैं, प्रहरी अशांत और उद्विग्न। प्रहरी अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं और भगवान मौन का प्रायश्चित्त। 'प्रिय प्रहरियों! ये चोर नहीं हैं। ये महाराज सिद्धार्थ के पुत्र भगवान् महावीर हैं। क्या तुम और परिचय पाना चाहते हो?' परिव्राजिका-युगल ने कहा। प्रहरी अवाक् रह गए। उन्हें अपने कृत्य पर अनुताप हुआ। वे बोले, 'पूज्य परिव्राजिकाओं! हम आपके बहुत-बहुत आभारी हैं। आपने हमें धर्म संकट से उबार लिया है। हम अब और परिचय नहीं चाहते। हम इस तरुण तपस्वी से क्षमा चाहते हैं। इस कार्य में आप हमारा सहयोग कीजिए।' वे प्रायश्चित्त की मुद्रा में भगवान् के चरणों में झुक गए। भगवान् की सौम्यस्निग्ध दृष्टि और मुखमण्डल से टपक रही प्रसन्नता ने उनका भार हर लिया।
'भन्ते! हमारे प्रहरियों ने आपका अविनय किया है, पर श्रमण-परम्परा के महान् साधक अबोध व्यक्तियों के अज्ञान को क्षमा करते आए हैं। हमें विश्वास है, आप भी उन्हें क्षमा कर देंगे। भन्ते! हमारा छोटा-सा परिचय यह है कि हम दोनों नैमित्तिक उत्पल की बहनें हैं।'
परिचय के प्रसंग में वे अपना परिचय देकर, जिस दिशा से आई थीं, उसी दिशा की ओर चली गयीं। भगवान् अपने गंतव्य की ओर आगे बढ़ गए। ५. मेघ और कालहस्ती दोनों भाई थे। कलंबुका उनके अधिकार में था। ये सीमांतवासी थे। एक बार कालहस्ती कुछ चोरों को साथ ले चोरी करने जा रहा था। भगवान् चोराक सन्निवेश से प्रस्थान कर कलंबुका की ओर जा रहे थे। गोशालक उनके साथ था। कालहस्ती ने भगवान् का परिचय पूछा। भगवान् नहीं बोले। उसने फिर पूछा, भगवान् फिर मौन रहे। गोशालक भी मौन रहा। कालहस्ती उत्तेजित हो उठा। उसने अपने साथियों से कहा, इन्हें बांधकर कलंबुका ले जाओ और मेघ के सामने उपस्थित कर दो।' मेघ अपने वासकक्ष में बैठा था। उसके सेवक दोनों तपस्वियों को साथ लिये वहां पहुंचे। उसने भगवान् को पहचान लिया और मुक्त कर दिया। भगवान् को बन्दी बनाने का जो सिलसिला चला उसके पीछे सामयिक परिस्थितियों का एक चक्र है। उस समय छोटे-छोटे राज्य थे। वे एक-दूसरे को अपने अधिकार में लेने के लिए लालायित रहते थे। गुप्तचर विभिन्न वेशों में इधर-उधर घूमते थे। इसीलिए हर राज्य के आरक्षक बहुत सतर्क रहते। वे किसी भी अपरिचित व्यक्ति को अपने राज्य की सीमा में नहीं घुसने देते।