संबोधि
उपासना का अर्थ है- समीप बैठना। अच्छाई की उपासना करने से व्यक्ति अच्छा बन जाता है और बुराई की उपासना करने से बुरा। हम जिनकी उपासना करते हैं वैसे ही बन जाते हैं। श्रावक के उपास्य हैं-अरिहंत, सिद्ध और धर्म। उपासना केवल शारीरिक न हो, वह मानसिक भी होनी चाहिए। मन और शरीर की एकाग्रता मनुष्य को साध्य तक पहुंचा देती है। श्रावक के निकटतम उपास्य है-मुनि, श्रमण।
श्रमण की उपासना व्यक्ति को केवल श्रमण ही नहीं बनाती, वह मुक्त भी करती है। उपासना का आदि-चरण है श्रवण-सुनना और अंतिम चरण है-निर्वाण। उपासना के दस फल ये हैं:
१. श्रवण-तत्त्वों को सुनना।
२. ज्ञान-सत् और असत् का विवेक।
३. विज्ञान-तत्त्वों का सूक्ष्म और तलस्पर्शी ज्ञान।
४. प्रत्याख्यान-हेय का त्याग और उपादेय का स्वीकार।
५. संयम-आत्माभिमुखता।
६. अनाश्रव-कर्म आने के मार्गों का अवरोध।
७. तप-आत्मा को विजातीय तत्त्व से वियुक्त कर अपने आप में युक्त।
८. व्यवदान-पूर्व-संचित कर्मों के क्षय होने से होने वाली विशुद्धि करना। यह बारह प्रकार का है।
९. अक्रिया-आत्मा के समस्त कर्म जब पृथक् हो जाते हैं तब मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति रुक जाती है, वह अक्रिया है।
१०. निर्वाण-आत्मा का पूर्ण उदय, कर्मों का सर्वथा विलय।
सत्संगति का एक क्षण भी संसार सागर से पार कर देता है। नारद ने भगवान् से कहा-मुझे मुक्ति दो। भगवान् ने कहा मैं स्वर्ग दे सकता हूं, और कुछ दे सकता हूं, किन्तु मुक्ति नहीं। मुक्ति के लिए संतों के पास जाओ।'
संत वह है जिसने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है। संत होने का अर्थ है-अपने पूरे जीवन को सत्य के लिए समर्पित करना, परमात्मा के सिवाय और कुछ नहीं चाहना। अस्तित्व के उद्घाटन में जो अपने जीवन को लगा देता है, जिसनें सत्य का साक्षात्कार कर लिया ऐसे व्यक्ति के समीप होने का अर्थ है-उपासना। उसके पास धर्म होता है। वह धर्म सुना सकता है। जिसके पास धर्म न हो, वह धर्म कैसे दे सकता है? महावीर कहते हैं- संत की उपासना से व्यक्ति को धर्म सुनना मिलता है।