वीतरागता, अहिंसा और जैन दर्शन के विकास की हो बात : आचार्यश्री महाश्रमण
जिनशासन प्रभावक युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने जिनवाणी की अमृत वर्षा कराते हुए फरमाया कि आयारो आगम में कहा गया है- पुरूष ! तूं सत्य का ही अनुशीलन कर। सत्य को जान लेना, यथार्थ को समझ लेना समस्या का एक समाधान हो सकता है। आत्म निग्रह, मन का संयम, चित्त का संयम करना है, तो अध्यात्म तत्व को आदमी समझ ले, फिर चित्त का निग्रह करने का प्रयास करें। हमारी दुनिया में यथार्थ वेत्ता और यथार्थ वक्ता महान व्यक्ति हो सकते हैं। एक शब्द है- आप्त। यथार्थ को जानने और बोलने वाला 'आप्त' होता है। यथार्थ का ज्ञान ग्रन्थों को पढ़ने से एवं सुनने से हो सकता है। बिना पढ़े सुने भी भीतर से ज्ञान प्रकट होता है और यथार्थ का साक्षात्कार हो जाता है। केवल ज्ञान सम्पूर्ण ज्ञान होता है, उससे दुनिया का सारा ज्ञान प्राप्त हो जाता है, कुछ भी अनजान नहीं रहता। केवल ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना जरुरी है, वीतरागता जरुरी है। जो कषाय युक्त है, या ज्यादा बोलने वाला है, वह अयथार्थ संभाषण कर सकता है। साधु के तो जीवनभर का मृषावाद का त्याग होता है। गृहस्थ भी अपने जीवन में जितना संभव हो सके झूठ न बोले। सच्चाई बोलने से कठिनाइयां तो आ सकती है पर संकल्प दृढ़ हो तो सत्य परास्त नहीं हो सकता।
पूज्यवर ने आगे फरमाया कि कहीं-कहीं सत्य का अनुशीलन कठिन हो सकता है। संप्रदाय की मान्यता के विरुद्ध स्थापना करना भी विचारणीय बन सकता है। ऐसी स्थिति में तीन बातें ध्यान देने योग्य हैं :- स्वयं का विचार, संप्रदाय की मान्यता और केवली भगवान का ज्ञान। साधु यह सोचे कि निश्चय में जो केवलियों ने प्रवेदित किया है वही सत्य है। जिनेश्वर देव ने जो प्रवेदित किया है, वहां पर साधु व संप्रदाय की मान्यता गौण है। जिनेश्वर भगवान का ज्ञान सबसे ऊपर है। दूसरी बात है कि संप्रदाय में जो बहुश्रुत हैं उनसे स्वयं के चिन्तन के बारे में विमर्श किया जा सकता है। राग द्वेष के आधार पर खंडन-मंडन न किया जाए। अनाग्रह का भाव हो, सच्चाई के प्रति निष्ठा हो तो सत्य बात का निष्कर्ष निकाला जा सकता है।
मूर्तिपूजक संप्रदाय में खरतरगच्छाधिपति आचार्य मणिप्रभसागर सूरीश्वरजी के समागमन के सन्दर्भ में पूज्यप्रवर ने फ़रमाया कि जैन शासन में अनेक आम्नाय हैं। मान्यता, वेशभूषा, उपासना या सिद्धान्त का अन्तर हो सकता है पर जहां वीतरागता, अहिंसा और जैन दर्शन के विकास की बात है वहां इन बातों का उतना महत्व नहीं है। सच्चाई और अच्छी बातों का प्रसार करने का प्रयास करें। चर्चा-वार्ता करते रहने से, मिलने से अच्छी हित की बात भी प्राप्त हो सकती है। जैन शासन का, मानव जाति का जितना हो सके, अच्छा काम होता रहे।
आचार्य मणिप्रभसागर सूरीश्वरजी ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि अनेक सम्प्रदाय और परम्पराएं हैं पर सबका ध्येय और लक्ष्य एक है। 99% सिद्धान्त एक हैं, केवल 1% का अन्तर हो सकता है। पांच महाव्रतों में, नव तत्वों में, चौबीस तीर्थंकरों में, नवकार महामंत्र की साधना में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है, हमें इन 99 प्रतिशत बातों को आगे करना है। युवाओं का मार्गदर्शन जैन संत ही कर सकते हैं। जैन संतों पर एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, जैनत्व और आचार-विचारों को बचाने की जिम्मेदारी संतों पर है। संतों का मिलन अपने आप में एक प्रखर संदेश देता है कि हमार जैन समाज एक है। जीवन में मिलन और समन्वय बहुत जरूरी है तभी साधना संभव हो सकती है।
आपने खरगोश और कछुए के दृष्टान्त से समझाया कि जो सतत जागता है, चलता रहता है, वह जीत जाता है। सोया रहने वाला हार जाता है। दोनों मिलते हैं तो सारे रास्ते पार हो जाते है। जैन धर्म के सभी सम्प्रदाय भी एक दूसरे के पूरक बनने का प्रयास करें, समन्वय और सहयोग का भाव जागृत रहे तो पूरे विश्व को जैन धर्म को रास्ता बता सकते हैं। आपने कहा कि तेरापंथ धर्मसंघ अपने आप में एक अद्भुत संघ है, हम हमेशा तेरापंथ की प्रशंसा करते रहते हैं। आपके जैसा अनुशासन सब में हो तो हमारा जैन समाज प्रगति करेगा। सूरत नगर आयुक्त (म्यूनिसिपल कमीश्नर) शालीनी अग्रवाल ने अपने विचार अभिव्यक्त करते हुए कहा कि इस चतुर्मास से सूरत शहर को धर्म और अध्यात्म की नगरी के रूप में पहचान मिली है। मंगलभावना के क्रम गतिमान रहा। कार्यक्रम का कुशल संचालन करते हुए मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।