आत्मा के वश में रहे मन : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

आत्मा के वश में रहे मन : आचार्यश्री महाश्रमण

तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपनी अमृत देशना में कहा कि आयारो आगम में यह बताया गया है कि मनुष्य के मन में दुःख से मुक्त रहने की भावना हो सकती है। वह सोच सकता है कि कोई कष्ट या समस्या न आए और वह दुःखी न हो। दुःख दो प्रकार के होते हैं— जरा और शोक। जरा - शारीरिक कठिनाइयों, जैसे वृद्धावस्था, बीमारी आदि से संबंधित होता है। शोक मानसिक दुःख है, जो विभिन्न कारणों से उत्पन्न हो सकता है। मनुष्य इन दोनों प्रकार के दुःखों से मुक्त रहना चाहता है। दुःख मुक्ति के लिए एक आध्यात्मिक उपाय बताया गया है -पुरुष ! अपनी आत्मा का संयम और अभिनिग्रह करो।
जीवन में अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों आती हैं। अनुकूलता में अधिक राग या खुशी नहीं करनी चाहिए। प्रतिकूलता में अधिक द्वेष या असंतोष नहीं होना चाहिए। चित्त का अभिनिग्रह (सयंम) कर इसे संतुलित रखना चाहिए। जब चित्त का अभ्यास संयमित हो जाता है, तो दुःख से मुक्ति संभव हो जाती है। सबसे पहले हमें अपने चित्त को वश में करना चाहिए। मन चंचल होता है पर इसे चंचल बनाने वाले कषाय, राग-द्वेष होते हैं। इन भावों को कम या समाप्त करना जरूरी है। जैसे तालाब के पानी में अपना चेहरा देखना हो तो स्थिरता और स्वच्छता दोनों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार हमारे चित्त में राग-द्वेष की तरंगें न हो, चंचलता न हो तो दुःख मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है।
आध्यात्मिक साधना के माध्यम से राग-द्वेष और कषाय की वृत्तियों को नियंत्रित करना चाहिए। शास्त्रों में इसे दो श्रेणियों में बताया गया है :- उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी। उपशम श्रेणी की तुलना फिटकरी से पानी में मिट्टी या गंदगी को नीचे बिठाने से की जा सकती है। वहीं क्षपक श्रेणी की तुलना मिट्टी, गंदगी को पूरी तरह पानी से अलग करने से की जा सकती है। क्षपक श्रेणी की साधना ज्यादा फलवान हो सकती है। दूसरों को वश में करना हमारे हाथ में नहीं है, लेकिन अपने चित्त को वश में करना हमारे नियंत्रण में है। मन का गुलाम व्यक्ति दुःख के मार्ग पर होता है, लेकिन जो मन को नियंत्रित कर लेता है, वह व्यक्ति दुःख से मुक्त हो सकता है। मन नौकर है, आत्मा मालिक है, मन आत्मा के वश में रहे तो दुःख मुक्ति की बात हो सकती है।
पांडेसरा से समागत स्थानकवासी साध्वी मनीषाश्रीजी और साध्वी पूर्वाश्रीजी ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति दी। वंदना संकलेचा ने आचार्यश्री से 21 उपवास की तपस्या के प्रत्याख्यान ग्रहण किए। मंगलभावना के क्रम में अनेकों व्यक्तियों ने अपने भाव अभिव्यक्त किए। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।