धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

कुछ प्राकृतिक घटनाओं का लोकपाल तथा उनके सहयोगी देवों से संबंध रहता है। हर प्राकृतिक घटना में उनका हस्तक्षेप नहीं भी हो, किन्तु प्राकृतिक घटनाएं उनकी जानकारी में रहती हैं, यह स्पष्ट है। देव प्राकृतिक घटनाओं में परिवर्तन भी कर सकते हैं। अल्पवृष्टि, महावृष्टि, बादलों की गर्जना, बिजली का कोंधना ये घटनाएं देवकृत भी होती हैं। प्राचीनकाल में प्राकृतिक आपदाओं और रोगों को देवकृत माना जाता था। उनकी शांति के लिए देवों को प्रसन्न करने का प्रयत्न किया जाता, उनकी पूजा और आराधना की जाती। हमारी भूमि, मनुष्य और दिव्यशक्ति-तीनों में परस्पर संबंध है। प्राकृतिक घटनाओं से संबंधित यह तथ्य भगवती सूत्र के तीसरे शतक में भी उपलब्ध है। शतक के आमुख में भी आचार्य महाप्रज्ञ ने इसका विवेचन किया है।
प्रामाणिक व्यक्ति का अपना प्रभाव होता है। ऐसा लगता है कि मनुष्य क्या, कई बार देव भी उसके बात को अस्वीकार नहीं कर सकते।
यह विचारणीय है व्यक्ति शाश्वत सुखों को छोड़कर अशाश्वत सुखों में लिप्त बनता है और बहुधा वह दोनों से ही वंचित हो जाता है।
यो ध्रुवाणि परित्यज्य, अध्रुवाणि निषेवते।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति, अध्रुवं नष्टमेव हि।।
जो ध्रुव (नित्य) को छोड़कर अध्रुव (अनित्य) का सेवन करता है, उसके ध्रुव भी नष्ट हो जाता है और अध्रुव तो नष्ट होने वाला है ही।
तीव्र आसक्ति से जो पाप कर्म सेवित होता है उसका अनुबन्ध पाप होता है। चार प्रकार के कर्म होते हैं-
१. पुण्यानुबन्धी पुण्य– कुछ कर्म पुण्य प्रकृति वाले होते हैं और उनका अनुबन्ध भी पुण्य (शुभ) होता है। जिस व्यक्ति के मन में आसक्ति अल्प होती है, उसके जो पुण्य कर्म का बन्ध होता है, वह उसे अशुभ (पाप) के चक्र में फंसाने वाला नहीं होता, उसमें मूढ़ता उत्पन्न करने वाला नहीं होता। इस प्रसंग में भरत चक्रवर्ती का उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है। उसने पूर्वोपार्जित पुण्य का भोग किया, किन्तु वह उसके अधोगति का निमित्त नहीं बन सका। उसने कल्याण का मार्ग स्वीकार किया।
२. पापानुबन्धी पुण्य– कुछ कर्म पुण्य प्रकृति वाले होते हैं, परन्तु उनका अनुबन्ध पाप (अशुभ) होता है। जिस व्यक्ति के मन में आसक्ति प्रबल होती है, उसके जो पुण्य कर्म का बन्ध होता है, वह उसे अशुभ की ओर ले जाने वाला, उसमें मूढ़ता उत्पन्न करने वाला होता है, इस प्रसंग में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है। उसके पूर्वार्ज पुण्यों का उदय उसके अधोगति का निमित्त बन गया। वह मर कर नरक में गया। इसी प्रसंग को लक्ष्य में रखकर निम्नांकित श्लोक मननीय है-
पुण्णेण होइ विहवो,
विहवेण मओ मएण मइमोहो।
मइमोहेण य पाव,
ता पुण्णं अम्ह मा होउ।।
पुण्य से वैभव होता है, वैभव से मद, मद से मतिमोह और मतिमोह से पाप। पाप मुझे इष्ट नहीं है, इसलिए पुण्य भी मुझे इष्ट नहीं है।
३. पुण्यानुबन्धी पाप– कुछ कर्म अशुभ होते हैं, पर उनका अनुबन्ध शुभ होता है। जो अशुभ कर्म तीव्र मोह से अर्जित नहीं होते, वे शुभ कर्म के निमित्त बन बाते हैं। इस प्रसंग में उदाहरण के लिए वे सब व्यक्ति प्रस्तुत किए जा सकते हैं, जो दुःख से सन्तप्त होकर शुभ की ओर प्रवृत्त होते हैं। अनाथी मुनि के गृहस्थावस्था में आंखों के वेदना हुई और वह उनके शुभ का निमित्त बन गई, उन्होंने मुनित्व स्वीकार कर लिया, कल्याणकारी शुभ कर्म करने में प्रवृत्त हो गए।
४. पापानुबन्धी पाप– कुछ कर्म अशुभ होते हैं और उनका अनुबन्ध भी अशुभ होता है। जिस व्यक्ति के तीव्र आसक्ति पूर्वक अशुभ कर्म का बन्ध होता है, वह उसमें मूढ़ता उत्पन्न करता रहता है।
व्याघ्र आदि हिंसक पशु इस कोटि में रखे जा सकते हैं।