संबोधि
जीवन में सबसे पहला कदम ही मुख्य होता है। अगर वह गलत दिशा में उठ जाता है तो आदमी भटक जाता है। यदि वह सही दिशा में उठ जाए तो मंजिल निकट हो जाती है। यह कहना चाहिए कि प्रथम कदम में ही प्रायः व्यक्ति चूक जाता है। इस उलझन भरे विश्व में सही दिशा-बोधक कठिनतम है। एक कवि ने कहा है-'कुछ व्यक्ति अज्ञान के कारण नष्ट होते हैं, कुछ व्यक्ति प्रमाद के कारण नष्ट होते हैं, कुछ ज्ञान के अवलेप (विद्या के घमंड) के कारण नष्ट होते हैं और कुछ दूसरे नष्ट व्यक्तियों के संपर्क में आकर नष्ट होते हैं।' धर्म की दिशा में पहला पाठ ठीक मिल जाए तो आत्म-दर्शन कोई असाध्य नहीं है।
महावीर ने इसकी पूरी कड़ी प्रस्तुत की है। धर्म के श्रवण से उसका ज्ञान होता है और उस ज्ञान से व्यक्ति को विज्ञान सत्यासत्य के निर्णय की क्षमता मिलती है। वह असत्य को असत्य और सत्य को सत्य देख लेता है। फिर उसके प्रत्याख्यान होता है। वह असत्य के आवरण जाल से मुक्त हो जाता है। फिर उसके संयम होता है। वह स्वभाव में चला आता है। स्वभाव में स्थिर होने पर विजातीय तत्त्वों के आगमन का द्वार बन्द हो जाता है। भीतर तप की अग्नि प्रज्वलित हो जाती है। वह अग्नि कर्म (विजातीय मल) को जलाकर भस्म कर देती है। साधक शुद्ध हो जाता है। वह स्वयं के ही स्वभाव से छलाछल भर जाता है और पूर्ण अक्रिय हो जाता है। यह समुचित कदम का सुफल है।
१४. निश्चये व्रतमापन्नो, व्यवहारपटुः गृही।
समभावमुपासीनोऽनासक्तः कर्मणीप्सिते।।
जो गृहस्थ अंतरंग में व्रतयुक्त है और व्यवहार में पटु है, वह समभाव की उपासना करता हुआ इष्टकार्य में आसक्त नहीं होता। श्रावक एक सामाजिक व्यक्ति होता है।
उस पर घरेलू, सामाजिक और राजनैतिक जिम्मेदारियां भी होती है। धर्म की आराधना करता हुआ वह उनसे विमुख नहीं हो सकता। संयम और व्रत-त्याग में निष्ठा रखता हुआ भी व्यवहार जगत् से अपने संबंध बनाये रखता है। लेकिन अंतर इतना है कि यदि वह संयमयुक्त है तो गृह-कार्य करता हुआ भी उनमें अनुरक्त नहीं होता; जबकि एक असंयमवान व्यक्ति उन्हीं कार्यों में रचा-पचा रहता है। आचार्य पूज्यपाद ने कहा-'जो केवल व्यवहार जगत् में जागरूक रहता है, वह आत्म-जगत् की दृष्टि से सुप्त है और जो आत्म-जगत् में जागृत रहता है वह व्यवहार जगत् में सुप्त है।