श्रमण महावीर
६. कूपिय सन्निवेश के आरक्षकों ने भगवान् को गुप्तचर समझकर बन्दी बना लिया। भगवान् के मौन ने उनके सन्देह को पुष्ट कर दिया। यह घटना पूरे सन्निवेश में बिजली की भांति फैल गई। वहां भगवान पार्श्व की परम्परा की दो साध्वियां रहती थीं। एक का नाम था विजया और दूसरी का नाम था प्रगल्भा। इस घटना की सूचना पाकर वे आरक्षि-केन्द्र पहुंचीं। उन्होंने आरक्षकों को भगवान् का परिचय दिया। भगवान् मुक्त हो गए।
यह नियति की कैसी विडंबना है कि भगवान् मुक्ति की साधना में रत हैं और कुछ उन्हें बन्दी बनाने में प्रवृत्त हैं।
लोहार्गला में भी भगवान् के साथ यही हुआ। उस राज्य के अपने पड़ोसी राज्य के साथ तनावपूर्ण सम्बन्ध चल रहे थे। वहां के अधिकारी आने जाने वालों पर कड़ी निगरानी रखते थे। उन्हीं दिनों भगवान् महावीर और गोशालक वहां आ गए। प्रहरियों ने उनसे परिचय मांगा। उन्होंने वह दिया नहीं। उन्हें बन्दी बनाकर राजा जितशत्रु के पास भेजा गया। नैमित्तिक उत्पल अस्थिकग्राम से वहां आया हुआ था। वह राज्य सभा में उपस्थित था। वह भगवान् को बन्दी के रूप में देख स्तब्ध रह गया। वह भावावेश की मुद्रा में बोला, 'यह कैसा अन्याय!' राजा ने पूछा 'उत्पल ! राज्य अधिकारियों के कार्य में हस्तक्षेप करना भी क्या कोई निमित्तशास्त्र का विधान है?'
'यह हस्तक्षेप नहीं है, महाराज। यह अधिकारियों का अविवेक है।'
'यह क्या कह रहे हो, उत्पल? आज तुम्हें क्या हो गया?'
'कुछ नहीं हुआ, महाराज! मेरा सिर लाज से झुक गया है?'
'क्यों?' 'क्या आप नहीं देख रहे हैं, आपके सामने कौन खड़े हैं?'
'बन्दी हैं, मैं देख रहा हूं।'
'ये बन्दी नहीं हैं। ये मुक्ति के महान् साधक भगवान् महावीर हैं।' महावीर का नाम सुनते ही राजा सहम गया। वह जल्दी से उठा और उसने भगवान् के बंधन खोल दिए और अपने अधिकारियों की भूल के लिए क्षमा मांगी।
भगवान् बन्दी बनने के समय भी मौन थे और अब मुक्ति के समय भी मौन। उनका चित्त मुक्ति का द्वार खोल चुका था, इसलिए वह शरीर के बन्दी होने पर रोष का अनुभव नहीं कर रहा था और मुक्त होने पर हर्ष की हिलोरें नहीं ले रहा था। बेचारे बन्दी को बन्दी बनाने का यह अभिनव प्रयोग चल रहा था।
८. इस दुनिया में जो घटित होता है, वह सब सकारण ही नहीं होता। कुछ-कुछ निष्कारण भी होता है। हिरण घास खाकर जीता है, फिर भी शिकारी उसके पीछे पड़े हैं। मछली पानी में तृप्त है, फिर भी मच्छीगर उसे जीने नहीं देते। सज्जन अपने आप में सन्तुष्ट है, फिर भी पिशुन उसे आराम की नींद नहीं लेने देते।
भगवान् तोसली गांव के उद्यान में ध्यान कर खड़े थे। संगमदेव उनके कार्य में विघ्न उत्पन्न कर रहा था। वह साधु का वेश बना गांव में गया और सेंध लगाने लगा। लोग उसे पकड़कर पीटने लगे। तब वह बोला, 'आप मुझे क्यों पीटते हैं?'
'सेंध तुम लगा रहे हो, तब किसी दूसरे को क्यों पीटें?'
'मैं अपनी इच्छा से चोरी करने नहीं आया हूं। मेरे गुरु ने मुझे भेजा है, इसलिए आया हूं।'
'कहां है तुम्हारे गुरु?'
'चलिये, अभी बताये देता हूं।'