गृहस्थ परिग्रह का अल्पीकरण करने का प्रयास करें : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 17 अक्टूबर, 2021
आगम ज्ञाता परम पावन आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल प्रेरणा देते हुए फरमाया कि सूयगड़ो आगम में बोधि प्राप्ति, बंधन और उसे तोड़ने की बात बताई गई है। बंधन अनेक हो सकते हैं। एक बड़ा बंधन है, परिग्रह। परिग्रह के साथ ममत्व, आसक्ति और मूर्च्छा की बात है। आदमी पदार्थों और प्राणी में भी मूर्च्छित हो सकता है। चेतनावान पदार्थ और चेतना शून्य पदार्थ इनमें जो ममत्व भाव रखता है। परिगह की बुद्धि रखता है, दूसरों के परिग्रह का अनुमोदन करता है, इस तरह परिग्रह से दत्त हुई चेतना वाला जो मनुष्य होता है, वह दु:ख से मुक्त नहीं हो सकता। धन-पदार्थ नहीं मिलने की स्थिति भी आदमी को दु:खी बना देती है। प्राप्त वस्तु चली गई तो दु:खी। प्राप्त वस्तु पास में पड़ी है, उसकी सुरक्षा के लिए भी कई बार तनाव रहता है, यह एक प्रसंग से समझाया कि जो खतरा था वो मैंने नदी में फैंक दिया। अतृप्ति का भी शांति भंग करने में हाथ हो सकता है। चार बातों से परिग्रह दु:ख पैदा कर सकता है। अप्राप्त है, तो पाने की लालसा, प्राप्त पास में है, तो उसकी सुरक्षा की दृष्टि से दु:ख या तनाव प्राप्त है, वो नष्ट हो जाए तो दु:ख। चौथा हैअतृप्ति का दु:ख और मिले-और मिले। जो परिग्रह में रत है, ममत्व है, वो व्यक्ति परिग्रह से मुक्त नहीं बन सकता।
श्रावक बारह व्रतों में पाँचवाँ व्रत हैइच्छा-परिमाण। यह एक तरह से परिग्रह से अपरिग्रह की ओर गति है। गृहस्थ है, पूर्णतया तो परिग्रह न छोड़ सके, पर इच्छाओं का परिमाण कर ले। पदार्थ का परिमाण कर ले। यह इच्छा-परिमाण दु:ख-मुक्ति की ओर गति है।
हिंसा और परिग्रह दोनों जुड़े हुए हैं। परिग्रह है तो हिंसा की बात हो सकती है। मनुष्य यह प्रयास करे कि जीवन जीने के लिए पदार्थ चाहिए पर ममत्व बुद्धि-आसक्ति कम करो। उम्र होने पर तो आदमी को अपरिग्रह पर ध्यान देना चाहिए। शरीर के प्रति भी ममत्व हो सकता है। शरीर की पकड़ को कम करो। पदार्थों की पकड़ भी कम करो, उनमें आसक्त मत रहो।
परिग्रह का जो त्याग करता है, वो चेतना को ऊर्ध्वारोहण की ओर ले जा सकता है। आचार्य तुलसी ने तो आचार्य-पद का भी विसर्जन कर दिया। पद भी परिग्रह हो सकता है। पद के लिए लालसा रहती है। पद, पैसा और प्रतिष्ठा ये ऐसी चीजें हैं कि इनका परिग्रह हो जाता है, आदमी दु:खी बन जाता है।
परिग्रह का संचय करने वाला, परिग्रह की अनुमोदना करने वाला, मूर्च्छा-ममत्व बुद्धि रखने वाला है, वह व्यक्ति दु:ख से मुक्त नहीं होता। आप लोग गृहस्थ हैं, परिग्रह का जितना अल्पीकरण संभव हो सके, वो करने का प्रयास करें। वृद्धावस्था आ जाए तो परिग्रह का अल्पीकरण करें। कई बार आदमी कहता है, मुझे पद लेने का त्याग करा दो, पर कई बार पद भी काम का होता है। सब पद छोड़ देंगे तो समाज-देश को कौन संभालेगा। पद पर है, तो लोग बात को मानेंगे। आदमी परिग्रह में विवेक रखे, ममत्व को छोड़े। परिग्रह का त्याग करने की दिशा में आगे बढ़े, तो दु:ख-मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। साध्वीप्रमुखाश्री जी ने कहा कि पूज्यप्रवर के प्रवचन से कितने लोग बदल रहे हैं। अनेक लोगों को नया बोध-नया जीवन मिलता है। मनुष्य जन्म जो दुर्लभ है, हमें सुलभ है, इसका हम कितना लाभ उठा सकें, यह हमारे चिंतन का विषय होना चाहिए। इस संसार में तीन चीजें बहुत दुर्लभ हैं। वे भाग्य से या देवकृत उपलब्ध होती हैं। वे हैंमनुष्य जन्म, मुमुक्षा का भाव और महापुरुषों का सान्निध्य। मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि प्रतिसंल्लीनता का एक प्रकार हैस्पर्श। स्पर्श से मन में चंचलता आ जाती है और मन को प्रिय लगती है। साधना और धर्म के क्षेत्र में आगे बढ़ने वाला व्यक्ति संल्लीनता के बारे में चिंतन करेगा कि मैं इंद्रियों की प्रतिसंल्लीनता करूँ। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने बताया कि हम अपने आपको अच्छे कार्यों में व्यस्त रखें तो दु:खों से मुक्त रह सकते हैं।