दया और अनुकंपा संसार रूपी समुद्र को पार करने में है सहायक :  आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

दया और अनुकंपा संसार रूपी समुद्र को पार करने में है सहायक : आचार्यश्री महाश्रमण

भैक्षवगण सरताज आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ नर्मदा नदी के किनारे बसे भरूच शहर में पधारे। एक कथा के माध्यम से प्रेरणा प्रदान करते हुए महातपस्वी ने फरमाया - सुपात्र को दान देना चाहिए। संसार में लौकिक दान अनुकंपा और दया के भाव से दिया जाता है, लेकिन साधु-संतों को दिया गया दान संयति और लोकोत्तर होता है। हमें अपने गुरूजनों का आदर करना चाहिए और सभी जीवों के प्रति दया और अनुकंपा का भाव रखना चाहिए। यह दया न केवल सुखदायक है, बल्कि संसार रूपी समुद्र को पार करने में भी सहायक है।
बिना किसी कारण किसी को दुःख नहीं देना चाहिए। न्यायपूर्ण और नैतिक व्यवहार करना चाहिए। दूसरों का भला करने वाले कार्यों में लगें। हित केवल लौकिक नहीं होता, आत्मा का आध्यात्मिक हित भी महत्वपूर्ण है। लक्ष्मी प्राप्त होने पर अहंकार से बचें। अच्छे लोगों की संगति करें और उनसे प्रेरणाएं लें। अच्छे विचारों वाली पुस्तकें पढ़ें। हमेशा ध्यान रखें - बुरा न देखें, बुरा न बोलें, बुरा न सुनें, बुरा न सोचें और बुरा कार्य न करें। अपने जीवन को अच्छे कार्यों से सुशोभित करें। पूज्यवर का प्रवास के.एल. जैन के निवास स्थान पर हुआ। पूज्यवर के स्वागत में तेरापंथ महिला मंडल ने गीत की प्रस्तुति दी। सभा अध्यक्ष नरेंद्र छाजेड़, थानमल मालू और के.एल. जैन ने अपनी भावनाएं अभिव्यक्त कीं। आध्यात्मिक भेंट के रूप में संकल्प पूज्यवर को समर्पित किए गए, और पूज्यवर ने त्याग करवाए। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।