भाग्य जैसा भी हो, अच्छा पुरुषार्थ करते रहें : आचार्यश्री महाश्रमण
संयम के सुमेरु आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि मनुष्य का शरीर महत्वपूर्ण होता है। इसमें पांच इंद्रियां होती हैं, साथ में पांच कर्मेंद्रियां भी होती हैं। इस मानव देह में जो जीव प्रकृष्ट साधना कर सकता है, वह अन्य किसी योनि के शरीर में, अर्थात मनुष्य के सिवाय अन्य जन्मों में, संभव नहीं हो सकती। इसलिए यह मानव देह अत्यंत महत्वपूर्ण है। मनुष्य देह प्राप्त कर व्यक्ति जीवन कैसा जीता है? जो अविनीत होता है, उसे विपत्ति मिलती है, और जो विनीत होता है, उसे संपत्ति प्राप्त होती है। ज्ञान का आभूषण विनय है। ज्ञान होने पर भी मौन रहना, यानी अवांछनीय प्रयास न करना, एक श्रेष्ठ गुण है। पांडित्य होने पर भी मौन रखना एक बड़प्पन की बात है। शक्तिशाली होने पर भी क्षमा का भाव रखना और दान देने पर भी नाम की आकांक्षा न रखना आदर्श है।
भाग्य की बात करें तो अगर स्वयं का भाग्य अच्छा हो, तो फल अवश्य मिलता है; इसमें राजा भी कुछ नहीं कर सकता। यदि भाग्य में नहीं लिखा है, तो राजा द्वारा दिया गया भी प्राप्त नहीं हो सकता। भाग्य जैसा भी हो, हम पुरुषार्थ अच्छा करते रहें। जीवन में अच्छे कार्य करते रहें। किसी का कल्याण हो सके तो करें, परंतु उसे अधिक प्रचारित न करें। संयम रखने वाले का भाग्य अच्छा निष्पन्न हो सकता है। हमें अपनी इंद्रियों और मन का संयम रखना चाहिए। इंद्रियों के विषय स्वयं न तो राग उत्पन्न करते हैं और न द्वेष। इनमें जो व्यक्ति आसक्त या ग्रस्त होता है, वही राग और द्वेष के कारण कर्मों का बंधन कर लेता है। इंद्रिय संयम से आत्मा का कल्याण हो सकता है। यदि किसी का उपकार किया, तो उसे करके भूल जाएं। हमारा भला प्रकृति कर देगी, क्योंकि प्रकृति कभी नहीं भूलती। इंद्रियों का संयम, अपनी साधना, और दूसरों का कल्याण करते रहना चाहिए। जितना संभव हो, दूसरों का आध्यात्मिक उपकार करने का प्रयास करते रहें। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।