स्वाध्याय बनता है पथदर्शन का माध्यम : आचार्यश्री महाश्रमण
गांव-गांव, शहर-शहर लोगों का कल्याण कराते हुए परम पावन आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ भांडोल से विहार कर रायमा के सरकारी विद्यालय में पधारे। अमृत देशना प्रदान करते हुए शांति दूत ने फरमाया कि हमारे आध्यात्मिक साधना जीवन में स्वाध्याय का विशेष महत्व है। स्वाध्याय से न केवल जानकारियां प्राप्त होती हैं, बल्कि यह पथदर्शन का भी माध्यम बनता है।
पुस्तकें भी एक प्रकार की मित्र होती हैं। ये ऐसी मित्र हैं जिन्हें कितने ही घंटे अपने पास रखा जा सकता है। वे लंबे समय तक हमारे साथ रहकर सुंदर ज्ञान, अच्छी शिक्षा और उचित सलाह प्रदान करती हैं। जो व्यक्ति स्वाध्यायशील होता है, जिसमें अध्ययन की रुचि होती है, और यदि वह धार्मिक संदर्भों में अध्ययन करता है, तो उसका समय शुभ कार्यों में व्यतीत होता है। जिनोपदिष्ट बारह प्रकार के तपों में से स्वाध्याय, जो तप का दसवां भेद है, अत्यंत महत्वपूर्ण है। स्वाध्याय के समान न तो कोई दूसरा तप है और न ही कोई होगा। स्वाध्याय के वाचन, पृच्छना आदि पांच भेद हैं। यदि अच्छा उत्तरदाता हो, तो प्रश्नों का उचित समाधान मिल सकता है। उत्तर देने वाला सटीक और योग्य हो, यह आवश्यक है। स्वाध्याय में कंठस्थ ज्ञान को दोहराना, चिंतन करना, परिवर्तना करना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा का अभ्यास करना शामिल है।
प्रवचन करना भी स्वाध्याय का एक रूप है। व्याख्यान देने वाला स्वयं ज्ञानी होना चाहिए। जो प्रवचन के अभ्यासी होते हैं, वे किसी भी विषय पर बिना विशेष तैयारी के व्याख्यान देने में सक्षम होते हैं। धर्मकथा, आत्मा की निर्जरा का साधन बन सकती है और दूसरों का भी कल्याण कर सकती है। जब एक वक्ता बोलता है, तो अनेक लोगों को श्रवण का लाभ मिलता है। श्रोताओं को जागरूक रहना चाहिए, न कि सो जाना चाहिए या केवल आलोचक बनकर रह जाना चाहिए। वक्ता और श्रोता के बीच तादात्म्य होना आवश्यक है। वक्ता की कुशलता का भी विशेष महत्व है। उसे अच्छी तैयारी के साथ बोलना चाहिए, उसका ज्ञान प्रौढ़ और वाणी मधुर होनी चाहिए। प्रभावशाली वाणी से श्रोता तक संदेश आसानी से पहुँचता है। यहाँ तक कि माइक भी वक्ता के लिए सहायक हो सकता है। ज्ञान का सबसे बड़ा साधन स्वाध्याय है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की वाणी अत्यंत मधुर, गला स्पष्ट और भाषा शुद्ध थी। श्रोता भी शांत होकर उन्हें सुनने में समय देते थे, जो एक सराहनीय बात है। ज्ञान को अपने जीवन में लाने का प्रयास करना चाहिए। ज्ञानी से विधिवत ज्ञान लेने वाला पात्र भी विनीत होना चाहिए। ज्ञान का असम्यक उपयोग नहीं होना चाहिए। अध्यात्म विद्या के लिए श्रम आवश्यक है। परिश्रम करें, और सफलता प्राप्त करें। स्वाध्याय में श्रम करेंगे, तो अवश्य ही फल मिलेगा। पूज्यवर के स्वागत में शारदा विद्यालय के हितेश भाई पटेल ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।