धर्म है उत्कृष्ट मंगल
शान्त रस अतीन्द्रिय सुख होता है। उसकी प्रकृति वैषयिक सुखों से भिन्न प्रकार की है। वह स्थायी व सदा सुखदायी होता है। अतीन्द्रिय सुख को पाने के लिए वैषयिक सुखों से विरत होना, अनासक्त होना अनिवार्य होता है। ऐन्द्रियक सुखों में प्रमुख स्थान अब्रह्मचर्य का है। शाश्वत सुखों के अभीप्सु व्यक्ति के लिए इससे विरत होना अनिवार्य है। अध्यात्म के लिए समर्पित व्यक्तियों (साधुओं) के लिए तो ब्रह्मचर्य को पूर्णतया आराधना आवश्यक है। वह साधुत्व का केन्द्रीय तत्त्व है। संन्यस्त जीवन जीने वालों के लिए कंचन (धन) और कामिनी (स्त्री) से विरत रहना मौलिक आचारसंहिता है।
गृहीत मौलिक व्रत की सुरक्षा के लिए अपेक्षित होने पर प्राणत्याग भी उपादेय माना गया है। पौरुष के प्रेरक पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी के गीत की एक पक्ति मननीय है– 'प्राणों की परवाह नहीं है, प्रण को अटल निभाएंगे।' ब्रह्मचर्य खतरे में पड़ जाए तो उसकी सुरक्षा के लिए आवश्यक प्रतीत होने पर यथाविधि मरण का वरण भी मुनि के लिए आगम विहित है। मुनि के लिए जीवन और मृत्यु गौण है, उसके लिए संयम अथवा स्वीकृत मौलिक व्रतों की आराधना मुख्य बात है। जीवन तो अनंत बार मिल गया। उसकी क्या मूल्यवत्ता है? मूल्यवत्ता चारित्र की आराधना की है। मुनि हो अथवा समण, उसके लिए सत्य, ब्रह्मचर्य जैसे मौलिक व्रत सिद्धान्ततः निरपवाद पालनीय होते हैं। उनकी मूल्यवत्ता के सामने यह नश्वर जीवन कुछ नहीं है।
वस्तुतः ब्रह्मचर्य का पालन दुष्कर होता है। और खतरे के स्थान में रहकर भी उसको विशुद्ध रखना महादुष्कर होता है। उत्तराध्ययन का यह घोष इस बात को बलवान् बनाता है- 'उग्गं महव्वयं बंभं, धारेयव्वं सुदुक्करं– उग्र ब्रह्मचर्य महाव्रत को धारण करना बहुत ही कठिन कार्य है। प्रस्तुत प्रसंग में उत्तराध्ययन के टिप्पणों में एक ऐतिहासिक प्रसंग दिया गया है, वह इस प्रकार है- चतुर्मास प्रारम्भ होने को था। स्थूलिभद्र सहित चार मुनि आचार्य सम्भूतविजय के पास आए। सबने गुरुचरणों में अपना-अपना निवेदन प्रस्तुत किया। एक ने कहा-गुरुदेव ! मैं सिंह की गुफा में अपना चतुर्मास बिताना चाहता हूं। दूसरे ने सांप की बांबी पर साधना करने की इच्छा प्रगट की। तीसरे ने पनघट की घाट पर और चौथे मुनि ने कोशा वेश्या की चित्रशाला में रहने की अनुमति चाही। गुरु ने उन्हें स्वीकृति दे दी।
चार मास बीते। सभी निर्विघ्न साधना सम्पन्न कर आचार्य के पास आए। आचार्य ने पहले मुनि को 'दुष्कर कार्य करने वाले' के संबोधन के संबोधित किया। उसी प्रकार दूसरे, तीसरे मुनि के लिए भी यही सम्बोधन प्रयुक्त किया। किन्तु स्थूलिभद्र को देखते ही आचार्य ने उन्हें 'दुष्कर-दुष्कर, महादुष्कर' कहकर संबोधित किया। तीनों मुनियों को गुरु का यह कथन बहुत अखरा। वे अपनी बात कहें उससे पूर्व ही आचार्य ने उनको समाहित करते हुए कहा- शिष्यों! स्थूलिभद्र कोशा वेश्या की चित्रशाला में रहा। सब प्रकार से सुविधाजनक चिरपरिचित स्थान, अनुकूल वातावरण, प्रतिदिन षड्रस भोजन का आसेवन और फिर कोशा के हावभाव। सब कुछ होते हुए भी क्षण भर के लिए मन का विचलित न होना, कामभोगों के रस को जानते हुए भी ब्रह्मचर्य व्रत की कठोर साधना करना कितना महादुष्कर कार्य है? यह वही कोशा है, जिसके साथ ये बारह वर्ष तक रहे थे। वहां रहकर इन्होंने अपनी साधना ही नहीं की है, अपितु कोशा जैसी वेश्या को भी एक अच्छी श्राविका बनाया है। अतः इनके लिए यह सम्बोधन यथार्थ है।
उनमें से एक मुनि ने गुरुवचनों पर विपरीत श्रद्धा करते हुए कहा कोशा के यहां रहना कौन-सा महादुष्कर कार्य है? वहां तो हर कोई साधना कर सकता है। आप मुझे अनुज्ञा दें, मैं अगला चतुर्मास वहां बिताऊंगा। आचार्य नहीं चाहते थे कि वह मुनि देखादेखी से ऐसा करे। बार-बार गुरु के निषेध करने पर भी उसने अपना आग्रह नहीं छोड़ा। अन्त में वही हुआ जो होना था। चतुर्मास बिताने के लिए वह कोशा के यहां पहुंच गया।