संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

जीसस ने कहा है-'कोई दो स्वामियों की सेवा एक साथ नहीं कर सकता। चाहे ईश्वर की आराधना करो या कुबेर की। ईश्वर चाहता है-त्याग और समर्पण, और कुबेर चाहता है-संग्रह तथा शोषण।' एक और भी उनका महत्त्वपूर्ण वचन है-'मैं तुम्हारा भगवान् बड़ा मानी हूं। मैं किसी दूसरे की सत्ता को नहीं सह सकता। चाहे तुम मुझे प्रसन्न कर लो या शैतान को।' धर्म की ज्योति प्रज्वलित होने के बाद भेदों की दीवार खड़ी नहीं रह सकती। धुएं की दीवार के लिए तेज हवा का झोंका पर्याप्त है। मायाजन्य मान्यताएं-मैं बड़ा हूं, विद्वान हूं, पूज्य हैं, उच्च हूं-आदि ज्ञान के प्रकाश में कब तक टिक सकती है? व्यक्ति दूसरों को तुच्छ और घृणित तब तक ही समझता है जब तक उसे स्वयं का बोध नहीं है। मंसूर एक महान् सूफी साधक हुआ है। उसने कहा-'अगर परमात्मा भी मुझे मिल जाय तो क्षमा नहीं मांगनी पड़ेगी, क्योंकि उसके सिवा मैंने किसी में कुछ देखा ही नहीं।' जो सबमें आत्मा को देखने लगता है वह कैसे दूसरों का तिरस्कार कर सकेगा? आत्म-बुद्धि जागृत हो जाए तब द्वैत का प्रश्न नहीं उठता। किन्तु उससे पूर्व भी यदि धार्मिक व्यक्ति दूसरों में आत्मा-परमात्मा को देखने लगे तो अनेक आंतरिक और बाह्य समस्याएं तिरोहित हो सकती है और वह व्यर्थ के क्षुद्रतम पापों से निवृत्त रह सकता है।
२०. नात्मा शब्दो न गन्धोऽसौ, रूपं स्पर्शो न वा रसः।
न वर्तुलो न वा त्र्यसः, सत्ताऽरूपवती ह्यसौ॥
आत्मा न शब्द है, न गंध है, न रूप है, न स्पर्श है, न रस है, न वर्तुल-गोलाकार है और न त्रिकोण है। वह अमूर्त सत्ता है।
वृहदारण्य उपनिषद् में जनक याज्ञवल्क्य से पूछता है कि आत्मा क्या है? याज्ञवल्क्य ने कहा-जो वह विज्ञान स्वरूप और ज्योतिर्मय है वह आत्मा है। यह आत्मा के शुद्ध स्वरूप का निरूपण है। क्या आत्मा के शरीर, वाणी, मन, बुद्धि, आंख, नाक, कान, हाथ, पैर, मुंह, आदि है? इनके उत्तर में हम वेदों में 'नेति' पाते हैं। ये आत्मा नहीं हैं। इनसे आत्मा का बोध होता है।
आत्मा अमूर्त है। शरीर, इन्द्रिय इत्यादि मूर्त हैं। मूर्त वस्तु अमूर्त को ग्रहण नहीं कर सकती। आकार प्रत्याकार पौद्गलिक वस्तुओं के होता है, चेतन में नहीं। आत्मा की खोज आत्मा से ही होती है। प्रश्नोपनिषद् में कहा है-'तप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा और विद्या से आत्मा की खोज करो।'
शब्दों का प्रयोग करने वाला, गंध का अनुभव करने वाला, स्पर्श और रस की अनुभूति करने वाला आत्मा है। शरीर की लंबी-चौड़ी रचना में आत्मा का योग है। जड़ शरीर में संवर्धन की शक्ति नहीं है। आत्मा अक्षुण्ण है। उसमें घटने और बढ़ने की क्रिया नहीं होती।