स्वतंत्र अवस्था में किया गया त्याग है सच्चा त्याग : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

स्वतंत्र अवस्था में किया गया त्याग है सच्चा त्याग : आचार्यश्री महाश्रमण

जिन शासन सरताज आचार्यश्री महाश्रमणजी टोकरला से लगभग 15 किलोमीटर का विहार कर लीमड़ी के नीलकंठ विद्यालय के प्रांगण में पधारे। परम पूज्य श्री ने पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारी दुनिया में आध्यात्मिकता भी जीवित है और भौतिकता भी। ये दो मार्ग बनते हैं—एक भौतिकता का और दूसरा आध्यात्मिकता का। दोनों मार्गों में अंतर है। जहां व्यक्ति भौतिक सुखों के प्रति अनुरक्त और आसक्त होता है, और उसके तहत भौतिकता की ओर दौड़ता है, इसका अर्थ यह है कि वह अध्यात्म से दूर हो रहा है। जहां व्यक्ति थोड़े अंश में भौतिकता का त्याग करता है, वह त्याग आत्मोत्थान की भावना से प्रेरित होकर किया गया त्याग होता है। यह त्याग, व्रत के रूप में, व्यक्ति को अध्यात्म की ओर आगे बढ़ाने वाला होता है। भौतिक वस्तुएं पौद्गलिक होती हैं, परंतु कभी-कभी वे आध्यात्मिक साधना में सहायक भी बन सकती हैं। व्यक्ति का स्वेच्छा से किया गया त्याग अपने आप में धर्म है। मजबूरी में किया गया त्याग त्याग नहीं कहलाता।
जो व्यक्ति पौद्गलिक वस्तुओं को परवशता के कारण नहीं भोग सकता, उसका त्याग सच्चा त्याग नहीं है। त्यागी वह होता है, जो स्वतंत्र अवस्था में अपनी प्रिय और कांत वस्तुओं से मोह त्याग देता है, जैसे 22वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ ने किया था। उनका त्याग पदार्थों के प्रति विरक्ति और अहिंसा के प्रति अनुरक्ति और अनुकंपा से प्रेरित था। साधु त्यागी होता है। साधु बनने का मूल आधार गरीबी या मजबूरी नहीं, बल्कि वैराग्य है। जहां त्याग होता है, वहां सुख होता है।
त्याग में सुख का वास है, जबकि हल्के स्तर के राग में भी दु:ख हो सकता है। किसी विषय, वस्तु, आदि के प्रति अनावश्यक राग, लालसा हो जाए और आदमी को उसे वह प्राप्त न हो पाए तो वह आदमी दुःखी बन सकता है। त्याग अत्यंत उच्च और महान है। साधु का त्याग उसकी सबसे बड़ी संपत्ति होती है। कामना के साथ दुख जुड़ा रह सकता है। इसलिए कामना न करें, कार्य करें। कार्य में निष्कामता होनी चाहिए। दान करते समय नाम और प्रशंसा की भावना न रखें। त्याग का मार्ग ही कल्याण का मार्ग है। विद्यालय में बच्चों को ज्ञान के साथ अच्छे संस्कार देने का प्रयास निरंतर होना चाहिए। आदमी को अपने जीवन में त्याग की भावना को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। आचार्यश्री ने अपनी सौराष्ट्र यात्रा के संदर्भ में कहा कि गुरुदेव तुलसी अपनी यात्रा के दौरान इस क्षेत्र में सन् 1967 में पधारे और अब सन् 2024 में मेरा आना हुआ है। लगभग 57 वर्ष का अंतराल हो गया। इस सौराष्ट्र की धरा पर आने का अवसर मिला है। सौराष्ट्र की धरा पर भी त्याग की चेतना बनी रहे। नीलकंठ विद्यालय की ओर से लालाभाई पटेल ने आचार्यश्री के स्वागत में अपनी भावना व्यक्त की। सौराष्ट्र तेरापंथी सभा के मंत्री मदन गंगावत ने भी अपने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।