निश्चय में वीतरागता और सम्यक्त्व से है कल्याण संभव : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

निश्चय में वीतरागता और सम्यक्त्व से है कल्याण संभव : आचार्यश्री महाश्रमण

जिन शासन के प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमणजी का वेजलका स्थित प्राथमिकशाला में मंगल पदार्पण हुआ। पूज्यवर ने अपनी मंगल देशना में फरमाया कि अध्यात्म के मार्ग में समर्पण और भक्ति का विशेष महत्व है। व्यक्ति जिनको अपना आराध्य मानता है, उनके प्रति भक्ति भाव होना चाहिए। आचार्यश्री ने कहा कि जैन शास्त्र में नमस्कार महामंत्र एक सुप्रसिद्ध महामंत्र है, जिसे छोटे-छोटे बच्चों को भी याद कराया जाता है। इसमें पाँच पद हैं और प्रत्येक के आगे 'णमो' लगा हुआ है। ये पाँचों पद आराध्य और वंदनीय हैं। नमस्कार महामंत्र में जिनके प्रति भक्ति प्रकट की जाती है, वे वीतरागता से जुड़े हुए हैं। तीर्थंकर पूर्णतया वीतरागी होते हैं, सिद्ध भी वीतरागता को प्राप्त कर चुके हैं। आचार्य उनके प्रतिनिधि हैं, उपाध्याय ज्ञानमूर्ति और चारित्र से युक्त होते हैं। साधु भी वीतरागता के साधक होते हैं।
ज्ञान और आचरण दोनों का जीवन में विशेष महत्व है। वीतरागता के साधक और वीतराग की वाणी का पाठ पढ़ाने वाले श्रद्धा और भक्ति का केंद्र होते हैं। पूज्यवर ने फरमाया कि भक्ति भीतर से होनी चाहिए, पाँचों पदों के प्रति अंतरंग भक्ति होनी चाहिए। आचार्यश्री ने कहा कि निश्चय और व्यवहार का बड़ा महत्व है। यदि निश्चय में साधुत्व नहीं आया, और व्यक्ति अभव्य है, तो चाहे कितनी भी साधना कर ले, मोक्ष प्राप्त नहीं होगा। परंतु यदि निश्चय में साधुत्व आ गया, क्षीण मोह की वीतरागता आ गई, तो मोक्ष सुनिश्चित है।
व्यवहार के दृष्टिकोण से क्रियाएं महत्वपूर्ण हो सकती हैं, लेकिन यदि निश्चय में वीतरागता और सम्यक्त्व आ जाए, तो कल्याण संभव है। उन्होंने समझाया कि बाहरी आचरण और भीतर की अवस्था में भिन्नता हो सकती है। अभव्य व्यक्ति भले ही आचार्य या साधु बन जाए और नौ ग्रैवेयक तक चला जाए, लेकिन मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। आचार्यश्री ने प्रेरणा दी कि हमारा निश्चय सम्यक्त्व से परिपूर्ण होना चाहिए। भीतर में शांति और समर्पण हो। हमारी भक्ति यथार्थ और सिद्धांत के प्रति हो। नियम पालन में निष्ठा और जागरूकता होनी चाहिए। थोड़ा सहन कर भी नियम को निभाने का प्रयास करें। प्राथमिक शाला से विजयभाई बाघेला एवं जयसिंह भाई ने पूज्यवर के स्वागत में अपनी भावना व्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।