उपासना
(भाग - एक)
ु आचार्य महाश्रमण ु
आचार्य पादलिप्त
आर्य पादलिप्त के संबंध में पूरी जानकारी प्राप्त कर शातवाहन नरेश ने मानखेट के भूपति कृष्ण के पास आर्य पादलिप्त को अपने यहाँ भेजने का निमंत्रण भेजा। नरेश शातवाहन की प्रार्थना पर गंभीरता पूर्वक विचार कर आर्य पादलिप्त ने पृथ्वी-प्रतिष्ठानपुर की ओर प्रस्थान किया। मार्गवर्ती दूरी को अतिशीघ्रता से पारकर वे प्रतिष्ठानपुर के बाहर उद्यान में आकर रुके। आर्य पादलिप्त के आगमन की चर्चा वहाँ के दानवीर शासक शातवाहन की विद्वान्-मंडली में चली। पंडितों ने शरत्कालीन संघन (जमा हुआ) घृत से भरा कटोरा एक व्यक्ति के साथ उनके सम्मुख भेजा। आचार्य पादलिप्त तीक्ष्ण प्रतिभा के धनी थे। वे विद्वानों की भावना को भाँप गए। उन्होंने घृत में सुई डालकर कटोरे को लौटा दिया। विद्वानों का अभिप्राय था शातवाहन की नगरी घृत से भरे कटोरे की भाँति विद्वानों से भरी है। इस बात का नगरी में प्रवेश करने से पहले भली-भाँति चिंतन कर लें।
आचार्य पादलिप्त का उत्तर था ‘घृत से भरे कटोरे में जैसे सुई समा गई है, वैसे ही विद्वानों से मंडित शासक शातवाहन की नगरी में मैं प्रवेश पा सकूँगा।’ आचार्य पादलिप्त की विद्धत्ता का शातवाहन की विद्वन्मंडली पर अत्यधिक प्रभाव हुआ।
नगर-प्रवेश के समय विद्वद्वर्ग सहित शातवाहन नरेश ने आर्य पादलिप्त का स्वागत किया एवं प्रवेश-महोत्सव मनाया।
एक बार आर्य पादलिप्त ने ‘तरंगलोला’ (तरंगवती) नामक एक चम्पू काव्य की रचना कर राजा शातवाहन की विद्वद्सभा में उसका व्याख्यान किया। काव्य सुनकर राजा तुष्ट हुआ। कवीन्द्र के नाम से आर्य पादलिप्त की ख्याति हुई। कवियों ने भी मुक्तकंठ से प्रशंसा की। राजसम्मानित गुणज्ञा गणिका ने उनकी स्तवना में एक शब्द भी न कहा। राजा शातवाहन पादलिप्त से बोलेआर्य ऐसा उपक्रम करें जिससे यह गणिका भी आपके इस काव्य की स्तुति में हमारे साथ हो। प्रभावक चरित्र के अनुसार गणिका के स्थान पर पांचाल कवि का उल्लेख है। आचार्य पादलिप्त के काव्यश्रवण से सब संतुष्ट थे, पर असूयाक्रांत पांचाल कवि प्रसन्न नहीं था। वह इस उत्तम काव्य में भी दोषों को आरोपित करता हुआ बोला
मेरे ही ग्रंथों से अर्थ-चोरी कर कथा क्या कंथा (गुदड़ी) रची है। ऐसे प्राकृत के साधारण वचन बालगोपाल को ही प्रभावित करने में समर्थ हैं। इससे विद्वानों का चित्त आकृष्ट नहीं हो सकता। ऐसी कथाओं की स्तवना करना भोगवती गणिका के लिए ही शोभा देता है।
आचार्य पादलिप्त कवि ही नहीं थे, चामत्कारिक विद्याओं पर भी उनका प्रभाव था। वे उपाश्रय में गए एवं पवनजय मंत्र-विद्या के सामर्थ्य से श्वास की गति का अवरोध कर पूर्ण निश्चेष्ट हो गए। उनकी कपटपूर्ण मृत्यु भी यथार्थ मृत्यु की प्रतीति करा रही थी। सर्वत्र हाहाकार फूट पड़ा। वाद्यों की ध्वनि के साथ शवयान नगर के प्रमुख मार्गों से ले जाया जा रहा था। आर्य पादलिप्त को शवयान में देखते ही शोकपूरित कवि पांचाल रो पड़ा और बोला
आकर: सर्वशास्त्राणां रत्नानामिव सागर:।
गुणैर्न परितुष्यामो यस्य मत्सरिणो वयम्॥
रत्नाकर की भाँति समग्र शास्त्रों के आकर, महासिद्धि पात्र आचार्य पादलिप्त थे। ईर्ष्यावश मैं उनके गुणों से भी परितुष्ट नहीं हुआ। मेरे जैसे असूयी व्यक्ति को कभी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी। आचार्य पादलिप्त उच्च कोटि के कवि थे।
सीसं कहवि न फुट्टं जमस्स पालित्तयं हरंतस्स।
जस्स मुहनिज्झराओ तरंगलोला नई वूढ़ा॥
जिनके मुख निर्झर से ‘तरंगलोला’ नदी प्रभावित हुई, उन पादलिप्त के प्राणों का हरण करने वाले यमराज का सिर फूटकर दो टूक क्यों न हो गया? कवि पांचाल के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर आचार्य पादलिप्त उठ बैठे और बोले‘मैं कविजी के सत्य वचन के प्रयोग से जीवित हो गया हूँ।’ आचार्य पादलिप्त में प्राणशक्ति का संचार देखकर सभी के मुख कमल-दल की भाँति मुस्करा उठे।
(क्रमश:)