धर्म है उत्कृष्ट मंगल
भारतीय– आप इतने आदर्शवादी हैं तो फिर प्रतिदिन का एक येन अपने पास क्यों रखते हैं जबकि आपका मजदूर आधा येन ही प्राप्त करता है। मिलमालिक– आपका यह प्रश्न ठीक है। इसका उत्तर मेरे पास है। मैं यहां मजदूर बन काम करता हूं, आधा येन तो उसका लेता हूं। मजूदर तो समय पर अपना काम कर चले जाते हैं। मैं पीछे से हिसाब-किताब, देख-भाल का काम भी करता हूं। आधा येन उसका लेता हूं। जिस दिन काम नहीं करता, आधा येन सरकार के चन्दे में डाल देता हूं।
भारतीय– यह जरूरी नहीं कि प्रतिमाह साठ येन की आमदनी हो ही। यह सरकारी नौकरी तो है नहीं, व्यापार है। इसमें नफा-नुकसान दोनों हो सकते हैं। मिलमालिक– नुकसान का कोई कारण नहीं है। अगर नफा ज्यादा होता है तो साइकिलें सस्ती कर देते हैं जिससे कि हमारे देश का निर्यात ज्यादा हो, देश को बाहर से ज्यादा पैसा मिले।
भारतीय– आपने बीमा करवाया है क्या?
मिलमालिक– हमें बीमा कराने की कोई जरूरत ही नहीं।
भारतीय– यदि कारखाने में आग लग जाए तो आप क्या करेंगे?
मिलमालिक– आग लगेगी तो कारखाना खत्म हो जाएगा। मेरी कार्यशीलता थोड़ी ही खत्म हो जाएगी। मैं दूसरी जगह काम करूंगा। आप लोग अपने बच्चों की बहुत चिन्ता करते हो। हम लोग बच्चों को चिन्ता नहीं करते। हम जो सरकार को चन्दा देते हैं, उससे हमारे बच्चों को ऐसी शिक्षा मिलेगी कि वे हमसे भी ज्यादा योग्य एवं कामयाब होंगे, ऐसा हमें विश्वास है। इस घटना से जापानी जनता का देशप्रेम, स्वार्थ त्याग एवं परिग्रह के प्रति अति आसक्ति का अभाव प्रकट होता है। यही कारण है कि जापान द्रुतगति से विकास कर रहा है। सामाजिक जीवन में अर्थ भी एक शक्ति है, यह यथार्थ प्रतीत हो रहा है। अर्थ के आधार पर सुविधा और प्रतिष्ठा की प्राप्ति भी संभव बनती है। अणुव्रत के सन्दर्भ में इतना ध्यातव्य है कि अर्थ अनर्थकारी न बने, उसका दुरुपयोग न हो तथा अर्थार्जन के साधन दूषित न हों।
अठारह पाप क्रियाओं में पांचवीं है परिग्रह। ममत्व भाव से किसी पदार्थ, प्राणी का परिग्रहण व संरक्षण परिग्रह है। स्थूल रूप से वस्तु आदि का ग्रहण न भी हो परन्तु यदि किसी के प्रति ममत्व व मूर्च्छा का भाव है तो भाव के स्तर पर तो ग्रहण हो ही जाता है। परिग्रह के दो प्रकार हैं-१. अन्तरंग परिग्रह २. बाह्य परिग्रह। राग भाव अन्तरंग परिग्रह है। रागभाव से बाह्य पदार्थों का ग्रहण व संग्रह होता है, वह बाह्य परिग्रह है। प्रधानता अन्तरंग परिग्रह की ही है। उसके न होने पर बाह्य पदार्थ 'परिग्रह' संज्ञा को प्राप्त नहीं हो सकते। 'दसवेआलियं' का स्पष्ट उद्घोष है– मुच्छा परिग्गहो वुत्तो– मूर्च्छा को परिग्रह कहा गया हैं। उसका परित्याग अपरिग्रह है।
श्रीमद् भगवद् गीता में मूर्च्छा (आसक्ति) को श्रृंखला का सुन्दर चित्रण किया गया है-
ध्यायतो विषयान् पुंसः, सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् सञ्जायते कामः, कामात् क्रोधोऽभिजायते ।।
क्रोधाद् भवति सम्मोहः, सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः ।
स्पृतिप्रंशाद् बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ।।
विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामनापूर्ति में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है। मूढ़भाव से स्मृतिभ्रंश हो जाता है और स्मृतिभ्रंश हो जाने से बुद्धि-ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धिनाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है।