श्रमण महावीर
'यह किसने किया?' संभ्रम के साथ श्रेष्ठी ने पूछा।
'इसका उत्तर आप हमसे क्यों पाना चाहते हैं?' स्वर को कुछ उद्धत करते हुए स्थविरा दासी ने कहा।
श्रेष्ठी बात की गहराई तक पहुंच गया। उसने तत्काल दरवाजा खोला। बादलों की घोर घटा एक ही क्षण में फट गई। निरभ्र आकाश में सूर्य की भांति चंदना का भाल ज्योति विकीर्ण करने लगा।
'यह क्या हुआ, पुत्री! मैंने कल्पना ही नहीं की थी कि तुम्हारे साथ कोई ऐसा व्यवहार करेगा?'
'पिताजी! किसी ने कुछ नहीं किया। यह सब मेरे ही किसी अज्ञात संस्कार का सृजन है।'
चंदना की उदात्त भावना और स्नेहिल वाणी ने श्रेष्ठी को शान्त कर दिया। वह बोला, 'मैं बहुत दुःखी हूं पुत्री! तुम तीन दिन से भूखी-प्यासी हो।'
'कुछ नहीं, अब खा लूंगी।'
श्रेष्ठी ने रसोई में जाकर देखा, भोजन अभी बना नहीं है। भात बचे हुए नहीं हैं। केवल उबले हुए थोड़े उड़द बच रहे हैं। उसने शूर्प के कोने में उन्हें डाला और चंदना के सामने लाकर रख दिया।
'पुत्री! तुम खाओ। मैं लुहार को साथ लिये आता हूं '- इतना कहकर श्रेष्ठी घर से बाहर चला गया।
भगवान् महावीर वैशाली और कौशाम्बी के मध्यवर्ती गांवों में विहार कर रहे थे। उन्हें पता चला कि शतानीक ने विजयादशमी का उत्सव चंपा को लूटकर मनाया है। उसके सैनिकों ने जी भरकर चंपा को लूटा है और किसी सैनिक ने धारिणी और वसुमती का अपहरण कर लिया है। उनके सामने अहिंसा के विकास की आवश्यकता ज्वलंत हो उठी। वे इस चिंतन में लग गए कि हिंसा कितना बड़ा पागलपन है। उसका खूनी पंजा अपने सगे-सम्बन्धियों पर भी पड़ जाता है। कौन पद्मावती और कौन मृगावती! दोनों एक ही पिता (महाराज चेटक) की प्रिय पुत्रियां। पद्मावती का घर उजड़ा तो उससे मृगावती को क्या सुख मिलेगा? पर हिंसा के उन्माद में उन्मत्त ये राजे बेचारी स्त्रियों की बात कहां सुनते हैं? ये अपनी मनमानी करते हैं।
शक्तिशाली राजा शक्तिहीन राजाओं पर आक्रमण कर उसका राज्य हड़प लेते हैं। यह कितनी गलत परम्परा है। वे जान-बूझकर इस गलत परम्परा को पाल रहे हैं। क्या शतानीक अजर-अमर रहेगा? क्या वह सदा इतना शक्तिशाली रहेगा? कौन जानता है कि उसकी मृत्यु के बाद उसके राज्य पर क्या बीतेगा? ये राजा अहं से अंधे होकर यथार्थ को भुला देते हैं। इस प्रकार की घटनाएं मुझे प्रेरित कर रही हैं कि मैं अहिंसा का अभियान शुरू करूं।
भगवान् को फिर पता चला कि महारानी धारिणी मर गई और वसुमती दासी का जीवन जी रही है। इस घटना का उनके मन पर गहरा असर हुआ। नारी-जाति की दयनीयता और दास्य-कर्म दोनों का चित्र उनकी आखों के सामने उभर आया। उन्होंने मन-ही-मन इसके अहिंसक प्रतिकार की योजना बना ली।
साधना का बारहवां वर्ष चल रहा था। भगवान् कौशाम्बी आ गए। पौष मास का पहला दिन। भगवान् ने संकल्प किया, 'मैं दासी बनी हुई राजकुमारी के हाथ से ही भिक्षा लूंगा, जिसका सिर मुंडा हुआ है, हाथ-पैरों में बेड़ियां हैं, तीन दिन की भूखी और आखों में आसू हैं, जो देहलीज के बीच में खड़ी हैं और जिसके सामने शूर्प के कोने में उबले हुए थोड़े से उड़द पड़े हैं।