भाग्यशाली व्यक्ति ही कर सकता है अध्यात्म ज्ञान का रसास्वादन : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

भाग्यशाली व्यक्ति ही कर सकता है अध्यात्म ज्ञान का रसास्वादन : आचार्यश्री महाश्रमण

त्रि-दिवसीय वर्धमान महोत्सव का द्वितीय दिवस। अष्ट मंगलों में एक मंगल होता है - वर्धमानक। अष्टमंगल के प्रदाता, आचार्यश्री महाश्रमणजी ने वर्धमानता को व्यापक रूप से समझाते हुए कहा कि वासुदेव ने जो मंगलभावना व्यक्त की कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, शांति और मुक्ति में वर्धमान रहो, यह मंगलभावना वाला श्लोक हमारे वर्धमान महोत्सव का आधारभूत श्लोक बन सकता है। जैसे प्रेक्षाध्यान में 'संप्पिखए अप्पगमप्प एणं' को आधारभूत श्लोक माना जाता है, वैसे ही वर्धमान महोत्सव में 'वड्ढ़माणो भवाइय' को आधारभूत श्लोकांश माना जा सकता है।
वर्धमानता के लिए ज्ञान एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है। हर ज्ञान अपने आप में पवित्र है, परंतु कौन-से विषय का ज्ञान किसके लिए उपयोगी हो सकता है, यह विवेक का विषय है। जो अध्यात्म शास्त्र का ज्ञाता है, वह अध्यात्म शास्त्र की बातों को आत्मसात करता है और आचरण में भी लाता है, वही सच्चे रस और आनंद का अनुभव करता है। भौतिक शास्त्र की बातों को आसक्ति के साथ उपयोग में लाने वाला मनुष्य क्लेश और दुःख का अनुभव कर सकता है। जैसे गधा चंदन की लकड़ी का भार ढोता है, परंतु उसका लाभ कोई भाग्यशाली ही उठाता है, वैसे ही अध्यात्म ज्ञान का रसास्वाद भी कोई भाग्यशाली व्यक्ति ही कर सकता है। जिनको अध्यात्म का मार्ग मिला है और वे उस मार्ग पर चलते हैं, वे साधु और व्यक्ति कितने भाग्यवान होते हैं। वर्धमान महोत्सव की आयोजना अनेक वर्षों से हो रही है। वर्तमान में भी यह चल रही है। इस महोत्सव से वर्धमानता की प्रेरणा लेना इसका प्रमुख उद्देश्य है। ज्ञान के क्षेत्र में हमारी वर्धमानता बनी रहे। व्याकरण का उदाहरण देते हुए कहा गया है कि यह देखने में नीरस लगता है, परंतु यदि अध्ययन और अभ्यास किया जाए तो व्यक्ति व्याकरण में निष्णात बन सकता है और विषयों का ज्ञाता हो सकता है। बिना व्याकरण के व्यक्ति भाषा के क्षेत्र में अंधा है। वह सही-गलत वाक्य का निर्णय नहीं कर सकता।
शब्दकोश का ज्ञान न होने से व्यक्ति बहरा होता है। वह शब्दों का अर्थ नहीं समझ सकता। साहित्य में गति न रखने वाला व्यक्ति पंगु होता है। जिसमें तार्किक बुद्धि नहीं होती, वह मूक के समान होता है। तर्क के बिना वह मौन ही रहता है। ज्ञान के विकास में प्रतिभा का बड़ा योगदान होता है। रायपसेणियम आगम में कुमारश्रमण केशी और राजा प्रदेशी के बीच का संवाद तार्किकता और प्रतिभा का उदाहरण है। प्रश्नों का उत्तर देने की कला विकसित करनी चाहिए। यह बहुश्रुतत्व का प्रतीक है। आदमी की यथार्थ के प्रति श्रद्धा होनी चाहिए। तार्किकता ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त उपलब्धि है। आचार्य श्री भिक्षु, गुरुदेव श्री तुलसी और आचार्य श्री महाप्रज्ञजी के साहित्य को देखकर उनके ज्ञान और तर्क की गहराई का अनुभव होता है। अध्यात्म शास्त्रों में डुबकी लगाने से ज्ञान के साथ आचरण और संस्कार भी विकसित होते हैं।
चारित्र समभाव में निहित है। समता भाव से राग-द्वेष की प्रवृत्ति पर अंकुश लगता है। सामायिक चारित्र की जड़ है। पंच महाव्रत अमूल्य हीरे के समान हैं। आठ प्रवचन माताएं भी उसमें सहयोगी बनती हैं। चारित्र की निर्मलता के लिए समितियों और गुप्तियों के प्रति जागरूक रहना आवश्यक है। आचरण का भी अपना महत्व है। अणुव्रत का उद्देश्य है कि व्यक्ति अच्छा इंसान बने। अहिंसा, सद्भावना, नैतिकता और नशा-मुक्ति से भी अच्छा इंसान बना जा सकता है। गृहस्थ जीवन में छोटे-छोटे नियमों का पालन उनकी आत्मा को निर्मल रख सकता है। प्रेक्षाध्यान से भी चित्त की शुद्धि और राग-द्वेष मुक्त अवस्था प्राप्त हो सकती है।
आचार्य प्रवर ने वर्धमान महोत्सव में उपस्थित गोंडल सम्प्रदाय के धीरज मुनि जी और सुशांत मुनि जी को तेरापंथ धर्म संघ की विशेषताओं और एक आचार्य की परंपरा की जानकारी दी। कार्यक्रम में मुख्यमुनिश्री महावीर कुमार जी ने कहा कि आचार्यश्री महाश्रमणजी के आचार्यकाल का पंद्रहवां वर्धमान महोत्सव मनाया जा रहा है। इस महोत्सव से हमारे संघीय संस्कार संपुष्ट बने, अच्छे बने। आचार में निपुणता, संस्कार सम्पन्नता और व्यवहार कुशलता ये तीन गुण वृद्धि के आयाम हैं। धर्म संघ में संख्या वृद्धि और हम साधु-साध्वियों एवं श्रावक-श्राविकाओं में भी निरन्तर गुणों की अभिवृद्धि होती रहे। साध्वी वृंद द्वारा समूहगीत की प्रस्तुति दी गई। पूज्यवर की अभिवंदना में कर्नाटक के पूर्व राज्यपाल वजुभाई वाला, गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री विजयभाई रूपाणी, सौराष्ट्र तेरापंथ सभा के मंत्री मदन पोरवाल, विनोद बांठिया और स्वामी त्यागवल्लभजी ने अपने भाव व्यक्त किए। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।