हमारा रुझान एवं आकर्षण हो आत्मा की ओर :आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

हमारा रुझान एवं आकर्षण हो आत्मा की ओर :आचार्यश्री महाश्रमण

जिनशासन के प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमणजी आज अपनी धवल सेना के साथ टंकारा के आर्य विद्यालयम् में पधारे। टंकारा आर्य समाज के संथापक महर्षि दयानंद सरस्वती की जन्मभूमि है। मंगल देशना प्रदान करते हुए आचार्य प्रवर ने फरमाया कि जो व्यक्ति एक को प्रमुख मानकर चलता है या आत्मा की ओर अभिमुख रहता है, वही सच्चा प्रमुख है। जो आत्मा की ओर रुचि रखता है, मोक्ष की ओर उन्मुख रहता है, वह जीवन का वास्तविक लक्ष्य समझने वाला होता है। आदमी को बैठते या सोते समय दिशा का विचार और। विवेक करना चाहिए। बड़ों के प्रति विनय के संदर्भ में आगम में कहा गया है कि बड़ों की ओर मुंह करके बैठना तो अच्छी बात हो सकती है, किन्तु उनकी ओर पृष्ठ भाग करके बैठना विनय और व्यवहार में उचित नहीं है। पूर्व और उत्तर दिशाओं का महत्व है। दीक्षा देने वाले और लेने वाले का मुख भी पूर्व या उत्तर की ओर होना चाहिए। विशेष कार्यों या साधना के दौरान भी इन दोनों दिशाओं की ओर मुख रखना महत्वपूर्ण है।
अध्यात्म के संदर्भ में हमारा दृष्टिकोण आत्मा की ओर होना चाहिए। हमारा रुझान और आकर्षण आत्मा की ओर होना चाहिए। आत्मा चैतन्य तत्व है, जो ज्ञान-दर्शन और उपयोग का स्रोत है। जिसमें चैतन्य है, वही जीव है। साधु वही है, जो आत्मा की ओर उन्मुख रहता है। पदार्थ हमारे साधन हो सकते हैं, लेकिन हमारा साध्य आत्मा है। आत्मा की विशुद्ध अवस्था ही हमारा अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। आचार्यश्री ने कहा कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप मोक्ष के मार्ग हैं। इन साधनों का उपयोग करना चाहिए। मोक्ष हमारा साध्य है, और इसके लिए संवर और निर्जरा महत्वपूर्ण साधन हैं। पदार्थों के प्रति आसक्ति और असंयम नहीं होना चाहिए। पदार्थों के प्रति मोह न रखना और संयमित रहना आवश्यक है।
उन्होंने आगे कहा कि साधु अल्पोपधि वाला होना चाहिए। वस्त्रों का उपयोग उचित है, लेकिन आवश्यकता से अधिक नहीं। परंपरा हमारी पहचान बन सकती है, लेकिन उपकरण मोक्ष के मूल साधन नहीं होते। मुख वस्त्रिका हमारी साधना का हिस्सा है और हमारे लिए एक सहज उपकरण बन गया है। रजोहरण, पूंजणी, मुखवस्त्रिका के बिना तो मुक्ति मिल सकती है, लेकिन संवर, निर्जरा, ज्ञान, दर्शन व चारित्र के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। साधुओं का मूल साध्य मोक्ष है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र, तप की आराधना करके मोक्ष प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए। आत्मा की ओर अधिक ध्यान देने और उसमें सहयोगी बनने वाले साधनों को उचित, सुव्यवस्थित रूप में उपयोग करें, यह काम्य हैं। मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ने बाल मुनियों व साध्वियों से अपने प्रवचन से संदर्भित प्रश्नोत्तर कर उन्हें पावन प्रेरणा प्रदान की। आचार्यश्री ने चतुर्दशी के संदर्भ में हाजरी का क्रम संपादित किया। उपस्थित साधु-साध्वियों ने अपने-अपने स्थान खड़े होकर लेखपत्र का उच्चारण किया। आर्य विद्यालयम् के संचालक रमणीकभाई ने आचार्यश्री का स्वागत करते हुए अपनी भावनाएं व्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।