धर्मसंघ में हो ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप में वृद्धि : आचार्य श्री महाश्रमण
त्रिदिवसीय वर्धमान महोत्सव के पावन अवसर पर धर्म संघ को वर्धमानता का सन्देश देने हेतु वर्धमान के प्रतिनिधि आचार्य श्री महाश्रमण जी सोखड़ा से विहार कर आत्मीय युनिवर्सिटी, राजकोट में पधारे। पूज्यप्रवर ने मंगल देशना में फरमाया कि हमारे धर्मसंघ में मर्यादा महोत्सव माघ शुक्ल सप्तमी को मुख्य रूप से आयोजित होता है। इसका प्रारंभ हमारे चतुर्थाचार्य परम पूज्य श्रीमद् जयाचार्य ने किया था। बसंत पंचमी और षष्ठी का दिन भी इसके साथ जुड़ा हुआ है। परम पूज्य आचार्यश्री तुलसी के समय में वर्धमान महोत्सव मनाना शुरू हुआ। आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने संगरूर में संभवतः विधिवत रूप से इसकी स्थापना की घोषणा की। वर्धमान महोत्सव मर्यादा महोत्सव से कुछ दिन पूर्व आयोजित होता है। मर्यादा महोत्सव विराट महोत्सव है, जबकि वर्धमान महोत्सव लघु महोत्सव है।
पूज्य प्रवर ने आगे फरमाया - वर्धमान, यानी बढ़ता हुआ। यह वर्धमानता भगवान महावीर के नाम से भी जुड़ी है। लोगस्स में वर्धमान नाम ही भगवान महावीर के लिए आया है। तीर्थंकर के नाम से जुड़ा हुआ यह हमारा महोत्सव है। मर्यादा महोत्सव से पहले साधु-साध्वियों की संख्या कई बार सैकड़ों में बढ़ जाती है। हालांकि यह ज्यादातर राजस्थान में ही संभव हो पाता है। मुमुक्षुओं और साधु-साध्वी संघ की संख्या बढ़नी चाहिए, और इसके लिए यथासंभव प्रयास भी होने चाहिए। संख्या वृद्धि के साथ-साथ गुणवत्ता वृद्धि भी होनी चाहिए। चतुर्विध धर्मसंघ में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप आदि में गुणात्मक वृद्धि हो। हमारे साधु-साध्वियां और समणियां ज्ञान के विकास के लिए सतत प्रयासरत दिख रहे हैं।
महाप्रज्ञ श्रुताराधना पाठ्यक्रम इसके लिए एक माध्यम बन सकता है। अखिल भारतीय तेरापंथ महिला मंडल द्वारा तत्वज्ञान आदि के पाठ्यक्रम भी ज्ञान वृद्धि के अच्छे माध्यम हैं। जैन विश्व भारती इंस्टीट्यूट और समण संस्कृति संकाय के माध्यम से भी ज्ञान का विकास हो रहा है, अभातेयुप भी इससे जुड़ा है। ज्ञानशाला के माध्यम से छोटे-छोटे बच्चों में संस्कार और ज्ञान का विकास हो रहा है।
दसवेंआलियं व उत्तरज्झयणाणि हमारे लिए अत्यंत उपयोगी हैं। स्वाध्याय से इनका ज्ञान और निर्जरा का लाभ मिल सकता है। यदि इनका कंठस्थीकरण हो तो यह और भी बेहतर हो सकता है। महामना आचार्य भिक्षु की ज्ञान-प्रज्ञा और श्रीमद् जयाचार्य के साहित्य-भंडार को देखकर उनके महान ज्ञान का आभास होता है। सन्मति शिक्षण संस्था के माध्यम से भी ज्ञान का विकास संभव है।सम्यक ज्ञान का विशेष महत्व है। दर्शन का भी अपना महत्व है। सम्यक्त्व के माध्यम से आयुष्य का बंध वैमानिक देवगति का ही होगा, यह सत्य है। हमें यथार्थ के प्रति श्रद्धा रखनी चाहिए और तत्व को समझने का प्रयास करना चाहिए। कषाय की मंदता भी सम्यक्त्व की निर्मलता में सहायक होती है। एक दृष्टि से देखें तो माघ शुक्ल त्रयोदशी को हमारा धर्मसंघ वर्धमान हुआ था, जब मुनि हेमराजजी की दीक्षा हुई थी। वह दिन वर्धमानता का दिवस है। गुरुदेव श्री तुलसी ने उनके 200वें दीक्षा दिवस के उपलक्ष्य में लाडनूं में उन्हें 'शासन स्तंभ' अलंकरण से अभिभूत किया था और आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने उसी दिन बीदासर में दीक्षा महोत्सव का आयोजन किया था।
गुरुदेव श्री तुलसी और आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने स्वयं ज्ञान का अध्ययन किया और अनेक लोगों को उनके सान्निध्य में ज्ञान के विकास का अवसर मिला। हमारी दर्शन चेतना निर्मल रहे, जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ में साधना निरंतर चलती रहे, हमारा साधुपन अधिक से अधिक निर्मल हो और उसमें वर्धमानता होती रहे। तीन शब्द हैं – वर्धमान, हीयमान और अवस्थित। हमें अच्छी बातों में वर्धमान बनना चाहिए, अवगुणों में हीयमान और जहाँ न विकास है, न ह्रास, वह मध्यम स्थिति है। गुणों की दृष्टि से वर्धमान महोत्सव और अवगुणों की दृष्टि से हीयमान महोत्सव है। अवगुणों की कमी और गुणों की वृद्धि हो। वर्धमान महोत्सव के अवसर पर साध्वीवर्या श्री संबुद्धयशाजी ने कहा कि आचार्यश्री भिक्षु परम पथ के प्रति समर्पित थे। यह पथ प्रभु महावीर का था। आचार्य भिक्षु इस पथ पर बढ़ते गए और सैकड़ों लोग उनके अनुगमन में चले। शताब्दियों बाद भी तेरापंथ धर्मसंघ की जड़ें गहरी हो रही हैं और यह विकास के शिखरों को छू रहा है।
कार्यक्रम में सौराष्ट्र स्तरीय तेरापंथी सभा के अध्यक्ष संजय पोरवाल और जैन समाज की ओर से चंद्रकांत भाई सेठ ने अपनी भावनाएँ व्यक्त की। तेरापंथ महिला मंडल, राजकोट ने स्वागत गीत की सुंदर प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।