मैत्री और वीतरागता की दिशा में गति कराने वाला है आध्यात्मिक ज्ञान : आचार्यश्री महाश्रमण
युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी तेरह किलोमीटर का विहार कर छत्तर गांव में स्थित प्राथमिकशाला में पधारे। अमृत देशना प्रदान करते हुए महातपस्वी ने फरमाया कि जो आत्मा संसारी अवस्था में है, वह जन्म-मरण के चक्र में बंधी रहती है। संसारी अवस्था में कोई भी जीवन शाश्वत नहीं होता। यह जीवन अनिश्चित, अस्थायी और क्षणभंगुर है। मनुष्य को यह भी पता नहीं होता कि उसका जीवन कब समाप्त हो जाएगा।
मनुष्य को जागरूक रहना चाहिए कि वह जीवन में अच्छे कार्य करे। उत्तराध्ययन आगम में भगवान ने गौतम को यह संदेश दिया है कि समय के एक क्षण को भी प्रमाद में न गवाएं। जैसे कुश के अग्रभाग पर अटकी ओस की बूंद किसी भी क्षण गिरकर समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार मनुष्यों का जीवन भी कभी भी समाप्त हो सकता है। जैसे कपड़ा धीरे-धीरे जीर्ण होता है, वैसे ही उम्र बढ़ने के साथ शरीर भी क्षीण होता जाता है। केश सफेद हो जाते हैं, श्रवण शक्ति कमज़ोर हो जाती है, और अन्य इंद्रियां भी अशक्त हो जाती हैं। इसलिए मनुष्य को सदैव जागरूक रहना चाहिए।
मानव जीवन अत्यंत दुर्लभ है और यह एक रत्न के समान है क्योंकि इसी देह में आध्यात्मिक साधना की जा सकती है। धर्म की आराधना और उत्कृष्ट साधना केवल मनुष्य जन्म में ही संभव है। यदि जीवन केवल खाने-पीने में व्यर्थ हो गया, तो मानव जीवन का उद्देश्य असफल हो जाएगा। संवर की साधना, संयम की आराधना, तप, स्वाध्याय और ध्यान—इन सब पर ध्यान दें। साथ ही यह भी विचार करें कि आध्यात्मिक ज्ञान कितना अर्जित किया जा रहा है।
जिस ज्ञान से आदमी वीतरागता की ओर बढ़ जाए, जिससे चित्त मैत्री से भावित हो जाए, जिससे तत्त्व का बोध हो, वह अध्यात्म विद्या का ज्ञान है। अध्यात्म विद्या के अध्ययन से आनंद और मुक्ति की दिशा में प्रगति संभव है। ज्ञान प्राप्ति के लिए ग्रहण शक्ति, स्मरण शक्ति, समझ, और सहन शक्ति आवश्यक हैं। इसके लिए योग्य गुरु और सहायक सामग्री का होना भी महत्वपूर्ण है। पुरुषार्थ भी उत्कृष्ट होना चाहिए। गुरुदेव श्री तुलसी और आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने बचपन में कितना ज्ञान अर्जित किया होगा, उनका उदाहरण हमारे सामने है। हमारे कई साधु-साध्वियां अवधान का प्रयोग करते हैं, जो स्मरण शक्ति की अद्वितीय विशेषता है। मानव जीवन में कठिनाइयां आ सकती हैं, लेकिन हर परिस्थिति में समता भाव बनाए रखें। धन साथ नहीं जाता, लेकिन आध्यात्मिक साधना और धर्म सदा साथ रहते हैं। सामायिक और धर्म की कमाई ही वह पूंजी है जो हमारे साथ जाएगी। तेजस और कार्मण शरीर भी साथ जाते हैं। अध्रुव-अशाश्वत मानव जीवन में धर्म की साधना और ज्ञान प्राप्ति करने आदि का प्रयास हो तो आदमी दुःखों से छुटकारा पा सकता है। छत्तर प्राथमिक शाला के प्रिंसिपल भावेश भाई संघाणी ने पूज्यवर के प्रति अपनी भावनाएं व्यक्त कीं। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।