संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

भगवान् प्राह 
२८. ये केचित् क्षुद्रका जीवा, ये च सन्ति महालयाः। 
            तद्वधे सृदशो दोषोऽसदृशो वेति नो वदेत्॥ 
भगवान् ने कहा-कुछ जीवों का शरीर छोटा है और कुछ का बड़ा। उन्हें मारने में समान पाप होता है या असमान इस प्रकार नहीं कहना चाहिए। 
यहां यह बताया गया है कि शरीर के छोटे-बड़े आकार पर हिंसा-जन्य पाप का माप नहीं हो सकता। जो व्यक्ति यह मानते हैं कि छोटे प्राणियों की हिंसा में कम पाप होता है और बड़े प्राणियों की हिंसा में अधिक पाप होता है, भगवान् महावीर की दृष्टि से यह मान्यता सम्यक् नहीं है। 
पाप का संबंध जीव- वध से नहीं किन्तु भावना से है। भावों की क्रूरता से जीव-हिंसा के बिना भी पापों का बंधन हो जाता है। मन, वाणी और शरीर की हिंसासक्त चेष्टा से छोटे जीव की हिंसा में भी पाप का बंध प्रबल हो जाता है और परिणामों की मंदता से वहां बड़े जीव की हिंसा में भी पाप का बंध प्रबल नहीं होता। अल्पज्ञ व्यक्तियों के लिए यह कहना कठिन है कि 'पाप कहां अधिक है और कहां कम।' परिणामों की तरतमता ही न्यूनाधिकता का कारण है। 
२९. हन्तव्यं मन्यसे यं त्वं, स त्वमेवासि नापरः। 
      यमाज्ञापयितव्यञ्च, स त्वमेवासि नापरः॥
३०. परितापयितव्यं यं, स त्वमेवासि नापरः। 
      यञ्च परिग्रहीतव्यं, स त्वमेवासि नापरः॥ 
३१. अपद्रावयितव्यं यं, स त्वमेवासि नापरः। 
      अनुसंवेदनं ज्ञात्वा, हन्तव्यं नाभिप्रार्थयेत्।।
जिसे तू मारना चाहता है वह तू ही है कोई दूसरा नहीं है। जिस पर तू अनुशासन करना चाहता है, वह तू ही है, कोई दूसरा नहीं है। जिसे तू संतप्त करना चाहता है, वह तू ही है, कोई दूसरा नहीं। जिसे तू दास-दासी के रूप में अपने अधीन करना चाहता है, वह तू ही है, कोई दूसरा नहीं। जिसे तू पीड़ित करना चाहता है, वह तू ही है, कोई दूसरा नहीं। सब जीवों में संवेदन-कष्टानुभूति होती है, यह जानकर किसी को मारने की इच्छा न करे।