भावों की शुद्धता से जीवन को करें उज्ज्वल : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

भावों की शुद्धता से जीवन को करें उज्ज्वल : आचार्यश्री महाश्रमण

भैक्षव गण सरताज आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ विहार कर अंजार पहुंचे। कच्छ में अंजार का विशेष महत्व है, जहाँ जैन समाज के अनेक परिवार निवास करते हैं। परम पावन आचार्यश्री ने पावन देशना प्रदान करते हुए कहा कि मनुष्य के भीतर भावधारा निरंतर प्रवाहित होती रहती है। कभी शुभ विचार चित्त के कैनवास पर उभरते हैं, तो कभी अशुभ भाव भी स्थान पा लेते हैं। यह मोहनीय कर्म का प्रभाव होता है, जो हमारे भीतर गहराई तक जड़ें जमाए रहता है। आचार्यश्री ने समझाया कि मोहनीय कर्म हमारे कार्मण शरीर का ही एक अंग है। जब इसका उदय होता है, तो असद्भाव प्रकट होने लगते हैं, और जब इसका क्षय होता है, तो सद्भाव की उत्पत्ति होती है। साधना के माध्यम से भावों की शुद्धता को प्राप्त किया जा सकता है। यदि शुद्धता उत्कृष्ट रूप से विकसित हो जाए, तो सिद्धत्व की प्राप्ति भी सहज हो सकती है। इसलिए हमें अपने भावों को शुद्ध रखने का निरंतर प्रयास करना चाहिए।
आचार्यश्री ने बताया कि हमारे मन की तीन स्थितियाँ होती हैं— अशुभ मन (दुर्मन), शुभ मन (सुमन) और अमन। जब मन किसी भी प्रकार के विचार, स्मरण या कल्पना से मुक्त हो जाता है, तो वह अमन की स्थिति को प्राप्त करता है। ध्यान के अभ्यास में ज्ञाता-द्रष्टा भाव विकसित कर निर्विकारता की ओर अग्रसर होना महत्वपूर्ण है। व्यग्र मन से एकाग्र मन की ओर बढ़ना और फिर मन से ऊपर उठना ध्यान की सर्वोत्तम भूमिका हो सकती है।
जैन धर्म में प्रेक्षाध्यान की परंपरा प्रचलित है, जिसमें एकाग्रता और अंतर्मुखता पर विशेष बल दिया जाता है। ज्ञानावरणीय कर्म के प्रभाव को कम किया जाए, तो आत्मज्ञान की अनुभूति संभव हो सकती है। हम अपनी इंद्रियों को बाहरी विषयों की ओर केंद्रित रखते हैं, लेकिन हमें भीतर की ओर भी दृष्टिपात करने का प्रयास करना चाहिए। आत्मा के प्रति जागरूक बने रहना आध्यात्मिक प्रगति की ओर ले जाने वाला मार्ग है। आचार्यश्री ने आगे फ़रमाया कि साधु समाज बाहरी संयोगों और संबंधों से मुक्त होता है, वहीं गृहस्थ को परिवार में रहते हुए भी अनासक्त भाव को अपनाना चाहिए। धाय माता की भांति निर्लेप रहने का अभ्यास करना चाहिए। जैन धर्म में कहा गया है— ''कौन बेटा, कौन पिता? सब कर्मों का अपना खेल है।''
गृहस्थ यदि अनुकंपा और अहिंसा की भावना से जीवन यापन करे, तो पापकर्म से बच सकता है। हमें अपने भीतर करुणा और दया का संचार करना चाहिए, क्योंकि यही हमारे कल्याण का मूल आधार बन सकता है। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि जब घोर अंधकार होता है, तो हमें कुछ भी दिखाई नहीं देता, और जब अत्यधिक प्रकाश होता है, तब भी हमारी दृष्टि चकाचौंध से भ्रमित हो जाती है। इसी प्रकार, जब शरीर रोगग्रस्त होता है, तो भी यथार्थ बोध कठिन हो जाता है। इसलिए हमें अपनी दृष्टि को सदा प्रसन्न और सम्यक बनाए रखना चाहिए। जैन दर्शन का मूल आधार सम्यग्दृष्टि है। जब कोई व्यक्ति सम्यग्दृष्टि को प्राप्त कर लेता है, तो उसका ज्ञान भी सम्यक हो जाता है और वह चारित्र की दिशा में आगे बढ़ता है।
बालोतरा चतुर्मास के बाद गुरु दर्शन कर रही साध्वी मंगलयशाजी ने अपनी भावना व्यक्त की एवं सहवर्ती साध्वी वृंद के साथ गीत का संगान किया। पूज्यवर के स्वागत में अंजार तेरापंथ समाज से चंद्रकांत भाई संघवी, जयेश भाई शाह, बनेचंद भाई गणेचा, डीसा श्रीमाली जैन संघ के जगदीशभाई संघवी, आठकोटि मोटीपक्ष जैन संघ के परेशभाई भंसाली, छहकोटि जैन संघ से मुकेशभाई शाह, मंत्री नारायण भाई डांगर, अंजार के विधायक टिकमभाई छांगा ने अपने हृदयोद्गार व्यक्त किए। तेरापंथ समाज की महिलाओं ने स्वागत गीत का संगान किया। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।