
चित्त को मैत्रीभाव से भावित करना है कल्याणकारी : आचार्यश्री महाश्रमण
जिन शासन प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ चिरई नानी स्थित शक्ति विद्यालय पधारे। अध्यात्म शक्ति के प्रदाता ने पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए फ़रमाया कि संस्कृत में चार भावनाओं वाला एक श्लोक है, जिसमें प्रार्थना की गई है—हे देव! मेरी आत्मा समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री रखे, गुणीजनों के प्रति प्रमोद भाव रहे, जो कष्ट में हैं उनके प्रति करुणा जागृत हो, और विपरीत विचारधारा रखने वालों के प्रति मध्यस्थ भाव बना रहे। ये चार भावनाएँ न केवल अध्यात्म से जुड़ी हैं, बल्कि व्यवहारिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यदि सभी प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव बना रहे और किसी के प्रति वैर न रखा जाए, तो यह एक बहुत ऊँचा विचार है। मैत्री और अहिंसा परस्पर संबंधित हैं, क्योंकि मैत्री का मूल भाव ही अहिंसा है।
सभी जीव सुखी और निरोगी रहें, सबका कल्याण हो, कोई भी दुःखी न हो—यह मंगल भावना होनी चाहिए। कम से कम मन में हिंसा का भाव तो उत्पन्न न हो। हिंसा किसी भी रूप में—कृत (स्वयं करना), कारित (दूसरों से कराना), अनुमति (स्वीकृति देना), मन, वचन और काया से न हो। जितना संभव हो, दूसरों का आध्यात्मिक हित करने का प्रयास करें, भले ही वे तिर्यंच ही क्यों न हों। कुछ तिर्यंच भी श्रावक हो सकते हैं, उनमें भी ज्ञान की कुछ मात्रा हो सकती है। देव जगत को भी धार्मिक मार्ग पर प्रेरित किया जा सकता है। गृहस्थों का भी लौकिक और आध्यात्मिक सहयोग महत्वपूर्ण हो सकता है।
मैत्री का संबंध केवल इस जन्म तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह आगे के जन्मों में भी जारी रह सकता है। इसी प्रकार, वैर का संबंध भी आगे तक जा सकता है। इसलिए हमें आध्यात्मिक मैत्री की भावना रखनी चाहिए और गृहस्थों को साधु या श्रावक बनने की प्रेरणा देनी चाहिए, क्योंकि यह भी एक प्रकार की मैत्री ही है। धर्म का संदेश यही है कि सभी प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखा जाए और किसी को शत्रु मानकर द्वेष न किया जाए। मनुष्य को अपने ही कर्म सुख-दुःख देते हैं। अन्य लोग भले ही निमित्त बन जाएँ, परंतु मूल कारण तो आत्मा के अपने ही कर्म होते हैं। इसलिए किसी के प्रति द्वेष या रोष न रखें। मन में समता और शांति का भाव बनाए रखें। चित्त को मैत्रीभाव से भावित करना कल्याणकारी होता है। पूज्यवर के स्वागत में विद्यालय के ट्रस्टी सुरेशभाई ने अपनी भावना व्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।