संबोधि
ु आचार्य महाप्रज्ञ ु
आज्ञावाद
भगवान् प्राह
(16) आक्रामतां प्रतिरोध:, प्रत्याक्रमणपूर्वकम्।
क्रियते शक्तियोगेन, हिंसा स्यात् सा विरोधजा॥
आक्रमणकारियों का प्रत्याक्रमण के द्वारा बलपूर्वक प्रतिरोध किया जाता है, वह विरोधजा हिंसा है।
यहाँ आक्रांत बनने का निषेध है। गृहस्थ अपने बचाव के लिए प्रत्याक्रमण करता है। सभी राष्ट्र स्व-सीमा में रहना सीख जाएँ, कोई किसी पर आक्रमण करने की चाल न चले तो शांति सहज ही फलित हो जाती है।
आक्रमण की प्रवृत्ति युद्ध को जन्म देती है, शांति को भंग करती है और अंतर्राष्ट्रीय मर्यादा का अतिक्रमण करती है। भगवान् महावीर ने ऐसा नहीं कहा कि देश की सीमा पर शत्रुओं का आक्रमण हो और तुम मौन बैठे रहो, लेकिन यह कहा कि आक्रांत मत बनो।
आक्रमण के प्रति प्रत्याक्रमण करना अहिंसा नहीं, किंतु विरोधजा हिंसा है।
(17) लोभो द्वेष: प्रमादश्च, यस्या मुख्यं प्रयोजकम्।
हेतु: गौणों न वा वृत्ते:, हिंसा संकल्पजाऽस्ति सा॥
जिस हिंसा के प्रयोजकप्रेरक, लोभ, द्वेष और प्रमाद होते हैं और जिसमें आजीविका का प्रश्न गौण होता है या नहीं होता, वह संकल्पजा हिंसा है।
(18) सर्वथा सर्वदा सर्वा, हिंसा वर्ज्या हि संयतै:।
प्राणघातो न वा कार्य:, प्रमादाचरणं तथा॥
संयमी पुरुषों को सब काल में, सब प्रकार से, सब हिंसा का वर्जन करना चाहिए, न प्राणघात करना चाहिए और न प्रमाद का आचरण।
(क्रमश:)