अपनी आत्मा को जीतने वाला परम विजयी होता है : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 25 अक्टूबर, 2021
तेरापंथ धर्मसंघ के महासूर्य आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारी दुनिया में हार और जीत का प्रसंग भी आता है। चुनाव में भी एक तरह का लड़ना होता है, संघर्ष होता है। कोई उम्मीदवार हार जाता है, कोई जीत जाता है। न्यायालय में भी वादी-प्रतिवादी होते हैं। शास्त्रार्थ होता है, वहाँ भी हार-जीत हो सकती है। युद्ध में भी हार-जीत की बात हो जाती है। शास्त्रकार ने एक बात बताई है कि परम जय किसकी होती है? एक योद्धा समरांगण में लड़ता है और वह दस लाख शत्रुओं को जीत लेता है। दुर्जय संग्राम में भी शत्रुओं को जीत लेता है। दूसरा साधक आदमी जो केवल अपनी एक आत्मा को जीतता है। कहाँ दस लाख शत्रुओं को जीतने वाला योद्धा, कहाँ एक अपनी आत्मा को जीतने वाला साधक। पर दोनों में परम जय उसकी है, जो अपनी एक आत्मा को जीत लेता है। दस लाख शत्रुओं को जीतने वाले की जय हो सकती है। यह धर्म-युद्ध है। भीतर का युद्ध है। अपने शत्रु, जो चार कषाय हैं, उनको जीतना। पाँच इंद्रियों को भी जीतने की अपेक्षा होती है। मन को भी जीतने की अपेक्षा होती है। इन दस को जो जीत लेता है, उसने अपनी आत्मा को जीत लिया। अपनी आत्मा को जीत लिया तो वह उसकी परम जय हो जाती है।
इस संदर्भ में दूसरों को जीतना आसान है, स्वयं के द्वारा स्वयं को जीतना कठिन होता है। साधक को भी एक तरह का सैनिक बनना पड़ता है। संक्षेप में एक मोहनीय कर्म को जीत लिया, अपनी आत्मा को लगभग जीत लिया। बाकी सात कर्मों को जीतने के लिए संभवत: ज्यादा प्रयास करने की अपेक्षा नहीं रहती।
आठ कर्मों में ज्यादा नुकसान करने वाला मोहनीय कर्म है। पाप कर्म का मुख्य जिम्मेवार मोहनीय कर्म है। बाकि तो उसके परिवार के सदस्य हैं। मोहनीय कर्म नहीं तो और पाप लगेंगे ही नहीं। मुख्यतया आत्मा का शत्रु यह मोहनीय कर्म होता है। शेष घाती कर्म थोड़ा नुकसान करने वाले हैं। चार अघाती कर्म आत्मा का नुकसान करने वाले नहीं होते हैं।
चार कषाय मोहनीय कर्म के परिवार के ही सदस्य हैं। ये चारों कषाय खत्म तो मोहनीय कर्म भी खत्म हो जाता है। साधक का युद्ध-एक तरफ मोहनीय कर्म का उदय, दूसरी ओर मोहनीय कर्म का क्षयोपशम औदयिक और क्षयोपशमिक भावों के बीच मानो युद्ध चलता है। कभी मोहनीय का उदय विजेता तो कभी मोहनीय का क्षयोपशम विजेता बन जाता है। युद्ध करते-करते मोहनीय कर्म संपूर्णतया क्षय होता है, आत्मा मोहनीय कर्म से मुक्त हो जाती है। मोहनीय कर्म आत्मा को छोड़े, तब हमें पूर्ण स्वातंत्र्य प्राप्त हो सकेगा। मोहनीय कर्म अनादिकाल से आत्मा में जमा हुआ है। इससे आत्मा का मकान खाली कराना है, तो भारी या उचित प्रयास करना होगा। भगवान महावीर ने एक ही जन्म में मोहनीय कर्म को परास्त नहीं किया। कितने जन्मों तक प्रयास किया होगा। तभी प्रयास करते-करते उनको महावीर के भव में स्वातंत्र्य प्राप्त हुआ। कहीं चोट भी करनी होती है। शास्त्रकार ने कहा है कि युद्ध में साधन-सामग्री क्या है? गुस्से को जीतने का हथियार हैउपशम की साधना करो। मान को जीतने के लिए मार्दव की साधना, माया को जीतने के लिए आर्जव का अभ्यास और लोभ को जीतने के लिए संतोष की साधना करो। प्रयास करते-करते कुछ सफलता मिल सकती है। साधना करने से पूर्ण सफलता तो न भी मिले पर नीचे की गति में तो नहीं जाना पड़ेगा। उच्च गति को जीव प्राप्त कर सकता है। प्रयास करते-करते पूर्ण सफलता मिल भी सकती है। संघर्ष, प्रयास, पुरुषार्थ तो करना ही होगा। अच्छा पुरुषार्थ करेंगे तभी सफलता मिल सकेगी, यह एक दृष्टांत से समझाया। पुरुषार्थ भी कहाँ करें, कैसे करें, वो भी साथ में ज्ञान हो तो सफलता मिलना ज्यादा संभव हो सकता है। हमें तो इस मोहनीय कर्म को जीतने का पुरुषार्थ करना चाहिए। ऐसा प्रयास करें कि पूर्णतया क्षीण इस जीवन में न भी कर सकें, पर कुछ अंशों में भी कमजोर बना दे तो भी हमारी सफलता है। फिर आगे के जन्मों में और साधना होगी तो कभी यह संपूर्णतया भी मोहनीय कर्म क्षीण हो सकेगा, ऐसी आशा की जा सकती है, और मुक्तिश्री प्राप्त हो सकती है।
पूज्यप्रवर ने आज भीलवाड़ा भ्रमण के द्वितीय चरण के अंतर्गत तेरापंथ भवन से विहार किया। मार्ग में स्कूली बच्चों को आशीष प्रदान किया। पूज्यप्रवर ने स्थान-स्थान पर कई कॉलोनियों को पावन किया। प्रज्ञा भारती संस्थान में भी गुरुदेव का पदार्पण हुआ। एक स्थान पर मूर्तिपूजक आचार्य से पूज्यप्रवर का आध्यात्मिक मिलन हुआ।