
गुरुवाणी/ केन्द्र
अभय के प्रयोग से हो सकता है अहिंसा का अनुपालन : आचार्यश्री महाश्रमण
जीवन नैया के कर्णधार अभय प्रदाता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अमृत देशना प्रदान कराते हुए ने फरमाया कि उन जिनों, वीतरागों को, तीर्थंकरों को नमन है, जिन्होंने भय को जीत लिया है। वह आदमी बहुत सुखी हो सकता है, जिसको किसी भी प्रकार का, किसी भी ओर से भय नहीं होता। न मौत का, न रोग का, न अपमान का, न अंधकार का भय। जिसे किसी भी प्राणी से भय नहीं है वह सुख का एक बड़ा आयाम प्राप्त कर लेता है। डरना कमजोरी है तो डराना भी गलत है। अभय का एक विभाग है - डरना नहीं तो दूसरा विभाग है - किसी को डराना भी नहीं। व्यक्ति के मोह, परिग्रह और आसक्ति है तो इनका वियोग भय का कारण हो सकता है। जहां मोह, राग, ममत्व है वहां भय हो सकता है। साधु तो दया मूर्ति होते हैं, वे किसी के प्रति मन में गांठ नहीं रखते हैं। साधु तो क्षमा धर्म वाले होते हैं। हम किसी प्राणी की हिंसा न करें, अभयदान दें। अगर कोई हिंसा करता है तो उसे समझाकर साधु उसकी हिंसा छुड़वा देते हैं।
दूसरों को डराए नहीं और स्वयं भी समता में रहे। छोटी-छोटी बातों में हम अहिंसा का ध्यान दे सकते हैं। स्थावर जीवों के प्रति भी अहिंसा रखें। प्राणियों के प्रति मैत्री की भावना रहे। सबके साथ शांति से रहें। सब के साथ सद्भावना रखें। धार्मिक व आध्यात्मिक सहयोग देने का प्रयास करें। सूक्ष्म जीव जो दिखाई नहीं देते उन्हें भी जैन धर्म में जीव माना गया है। चलें तो देख-देख कर चलें, साधु तो ईर्या-समिति में पूर्णतया जागरूक रहे। संयम है तो अहिंसा हो जाती है। गृहस्थ जीवन में जितना धर्म, संयम, त्याग-प्रत्याख्यान कर सकें, तपस्या कर सकें, वह आत्मा की बड़ी सम्पति है। सम्पति बढ़ती रहे, अच्छी रहे, यह काम्य है।