
स्वाध्याय
धर्म है उत्कृष्ट मंगल
४९. सम्यग्दर्शनमापन्नाः, अनिदाना अहिंसकाः।
म्रियते प्राणिनस्तेषां, सुलभा बोधिरिष्यते॥
जो सम्यग्दर्शन से युक्त हैं, जो भौतिक सुख का संकल्प नहीं करते और जो अहिंसक हैं, उन्हें मृत्यु के उपरान्त बोधि सुलभ होती है।
जीवन का परम ध्येय बोधि है। बोधि के अनुभव के अभाव में संसार-प्रवाह प्रक्षीण नहीं होता। जीसस ने कहा है-'पहले प्रभु का राज्य प्राप्त कर ले। शेष सब अपने आप मिल जाएगा।' अपने को पा लेने के बाद व्यक्ति को और क्या चाहिए? सभी चाह मिट जाती हैं। वह स्वयं सम्राट् हो जाता है।
'चाह मिटी चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह।
जिसको कुछ नहीं चाहिए सो शाहन को शाह।।'
बोधि का न मिलना ही दरिद्रता है। सच्ची संपत्ति वही है जो हमारे साथ जा सके। किन्तु जो केवल बाहर से ही समृद्ध होना चाहते हैं, वे असली सम्पत्ति से चूक जाते हैं। जिनकी दृष्टि सम्यग् नहीं है, विचार पवित्र नहीं है, ऐसे व्यक्तियों को बोधि अगले जन्म में भी दुर्लभ है।
लेकिन जो बाहर से हटकर भीतर की यात्रा में चल पड़ते हैं, बाहर के सुखों में आसक्त नहीं होते और न उसके लिए प्रयत्नशील रहते हैं उनका समस्त श्रम स्वयं की खोज में होता है। ऐसे व्यक्ति बोधि से वंचित नहीं रहते।
५०. अपापं हृदयं यस्य, जिह्वा मधुरभाषिणी।
उच्यते विषकुम्भः स, नूनं मधुपिधानकः॥
जिस व्यक्ति का हृदय पाप-रहित है और जिसकी जिह्वा मधुरभाषिणी है, वह विषकुंभ है और मधु के ढक्कन से ढंका हुआ है।
५१. अपापं हृदयं यस्य, जिह्वा कटुकभाषिणी।
उच्यते मधुकुम्भः स, नूनं विषपिधानकः।।
जिस व्यक्ति का हृदय पाप-रहित है, किन्तु जिसकी जिह्वा कटुक-भाषिणी है, वह मधुकुम्भ है और विष के ढक्कन से ढंका हुआ है।