
व्यक्ति संयम की चेतना को पुष्ट करने का प्रयास करे : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 2 नवंबर, 2021
अध्यात्म साधना के धनी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि सूयगड़ो आगम में कहा गया हैसंयमी व्यक्ति धर्म में स्थित रहे। किसी भी इंद्रिय-विषय में आसक्त न बने। आत्मा का संरक्षण करें और जीवन-पर्यन्त चर्या आसन, शैय्या और भक्त-पान के विषय में होने वाले असंयम से अपने आपको बचाएँ। साधु का जीवन तो धर्म के लिए समर्पित होना चाहिए। धर्म में स्थित रहे और अपनी साधना में स्थित रहे, महाव्रतों के प्रति जागरूक रहे। धर्म में स्थित रहना है, तो इंद्रिय-विषयों से अनासक्त रहना भी अपेक्षित है। धर्म और विषयासक्ति इन दोनों में विरोध है। धर्म रहेगा या विषयासक्त रहेगा। धर्म में स्थित होने वाला अपने आपमें स्थित हो सकता है। एक प्रसंग से समझाया कि साधक तो ठहरा हुआ ही रहता है। साधु तो आत्मस्थ होता है। साधु की साधनासिक्त करुणामयी वाणी से किसी का भला हो सकता है। साधु के तो दर्शन ही पुण्य होते हैं। साधु तो जंगम चलते-फिरते तीर्थ होते हैं। शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श इनकी आसक्ति में आदमी संलग्न हो जाता है तो आत्मा से मानो दूर हो जाता है। इंद्रिय-विषय आत्मा के लिए खतरा है, इसलिए इनसे आत्मा की रक्षा करो। असंयम से अपने आपको बचाओ। संयम है, तो आत्मा की रक्षा है। इसके लिए शास्त्रों में कछुए का उदाहरण दिया गया है। तिर्यन्च जीवों से भी आंशिक शिक्षा ली जा सकती है। आदमी को शिक्षा जहाँ से मिले, ले लेनी चाहिए। संयम का अपना महत्त्व होता है। साधु तो भक्तपान के असंयम से बचे ही, गार्हस्थ्य में भी भक्त पान के असंयम से बचने का प्रयास करे। श्रावक गृहस्थ जितना त्याग करेगा, विरति संवर होता रहेगा। अनेक रूपों में त्याग किया जा सकता है। आदमी वाणी का भी संयम करे। बिना आधार बात मत लिखो। बोलने में भी आधार चाहिए। हम अपने जीवन में संयम की चेतना को यथोचित्य पुष्ट करने का प्रयास करें, यह काम्य है। पूज्यप्रवर ने दिपावली पर तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि सेवा करने में जिगुत्सा के भाव आ जाते हैं, तो वहाँ व्यक्ति सेवा नहीं कर सकता। सेवा तो आग्लान भाव से होती है। सेवा के महत्त्व को समझाया। सेवा करने वाला व्यक्ति प्रशंसा का पात्र बनता है। राग-द्वेष से मुक्त हो सेवा करें। सेवार्थी की अपेक्षानुसार साधु सेवा करें। उसकी चित्त-समाधी बनाए रखने का प्रयास करें। साध्वी केवलयशा जी ने गीत के माध्यम से अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।