श्रमण महावीर

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

श्रमण महावीर

सामुदायिकता
भगवान् महावीर वैयक्तिक स्वतन्त्रता के महान् प्रवक्ता और सामुदायिक मूल्यों के महान् संस्थापक थे। उनके सापेक्षवाद का सूत्र था व्यक्ति-सापेक्ष समुदाय और समुदाय-सापेक्ष व्यक्ति।
स्वतन्त्रता और संगठन दोनों सापेक्ष सत्य हैं। एक की अवहेलना करने का अर्थ है दोनों की अवहेलना करना। इस सत्य को निर्युक्तिकार ने इस भाषा में प्रस्तुत किया है-'जो एक मुनि की अवहेलना करता है, वह समूचे संघ की अवहेलना करता है और जो एक मुनि की प्रशंसा करता है, वह समूचे संघ की प्रशंसा करता है।
रुचि, संस्कार और विचार-ये व्यवस्था के सूत्र नहीं बन सकते। ये व्यक्तिगत तत्त्व हैं। दीक्षा-पर्याय यह सामुदायिक तत्त्व है। भगवान् ने इसी तत्त्व के आधार पर व्यवस्थाओं का निर्माण किया। मेघकुमार की घटना से इस स्थापना की पुष्टि हो जाती है।
मेघकुमार भगवान् के पास दीक्षित हुआ। रात के समय सब साधुओं ने दीक्षा-पर्याय के क्रम से सोने के स्थान का संविभाग किया। मेघकुमार सबसे छोटा था, इसलिए उसे दरवाजे के पास सोने का स्थान मिला।
भगवान् के साथ बहुत साधु थे। वे देहचिंता-निवारण स्वाध्याय, ध्यान आदि प्रयोजनों से इधर-उधर जाने-आने लगे। कोई मेघकुमार के हाथ को छू जाता, कोई पैर को और कोई सिर को। इस हलचल
में उसे सारी रात नींद नहीं आई। रात का हर क्षण उसने जागते-जागते बिताया।
राजकुमार, कोमल शैया पर सोया हुआ और राज-प्रासाद के विशाल प्रांगण में रहा हुआ। कठोर शैया, दरवाजे के पास संकरा स्थान और आने-जाने वाले साधुओं के पैरों-हाथों का स्पर्श। इस विपरीत स्थिति ने मेघकुमार को विचलित कर दिया वह सोचने लगा- 'मैं महाराज श्रेणिक का पुत्र और महारानी धारिणी का आत्मज था। मैं अपने माता-पिता को बहुत प्रिय था। जब मैं घर में था तब ये साधु मेरा कितना आदर करते थे? मुझे पूछते थे। मेरा सत्कार-सम्मान करते थे। मुझे अर्थ और हेतु बतलाते थे। मीठे बोल बोलते थे। आज मैं साधु हो गया। इन साधुओं ने न मेरा आदर किया, न मुझे पूछा, न मेरा सत्कार-सम्मान किया, न मुझे अर्थ और हेतु बतलाया और न मधुर वाणी से मुझे संबोधित किया। मुझे एक दरवाजे के पास सुला दिया। सारी रात मुझे नींद नहीं लेने दी। इस प्रकार मैं कैसे जी सकूंगा? मैं इस प्रकार की नारकीय रातें नहीं बिता सकता। कल सूर्योदय होते ही मैं भगवान के पास जाऊंगा, और भगवान् को पूछकर अपने घर लौट जाऊंगा।
इस घटना के बाद भगवान् महावीर ने नव-दीक्षित साधुओं को उस आनुक्रमिक व्यवस्था से मुक्त कर दिया। उन्हें अनेक कार्यों में प्राथमिकता दी। उनकी सेवा करने वाले तीर्थंकर बन सकते हैं, मेरी स्थिति को प्राप्त हो सकते हैं, यह घोषणा कर भगवान् ने नव-दीक्षित साधुओं की प्राथमिकता को स्थायित्व दे दिया और चिर-दीक्षित साधुओं की व्यवस्था दीक्षा-पर्याय के क्रमानुसार संविभागीय पद्धति से चलती रही।
सेवा
सेवा सामुदायिक जीवन का मौलिक आधार है। इस संसार में विभिन्न रुचि के लोग होते हैं भगवान् महावीर ने ऐसे लोगों को चार वर्गों में विभक्त किया है-
१. कुछ लोग दूसरों से सेवा लेते हैं, पर देते नहीं।
२. कुछ लोग दूसरों को सेवा देते हैं, पर लेते नहीं।
३. कुछ लोग सेवा लेते भी हैं और देते भी हैं।
४. कुछ लोग न सेवा लेते हैं और न देते हैं।
सामुदायिक जीवन में सेवा लेना और देना-यही विकल्प सर्वमान्य होता है। भगवान् ने इसी आधार पर सेवा की व्यवस्था की।