
स्वाध्याय
संबोधि
बुद्ध एक गांव में आये। एक व्यक्ति बुद्ध पर क्रुद्ध था। वह आया और गालियां बकने लगा। बुद्ध सुनते रहे और हंसते रहे। क्रोध का उबाल इतना सघन हो गया कि वह उतने से ही शांत नहीं रहा। उसने क्रोधावेश में बुद्ध के मुंह पर थूक दिया। मुंह पोंछ कर बुद्ध बोले 'वत्स! और कुछ कहना है? आनंद गुस्से में आ गया। बुद्ध ने कहा- 'इसके पास शब्द नहीं रहे, तब थूक कर अपना क्रोध बाहर फेंक रहा है। तुम अपने को दंड मत दो।' वह व्यक्ति घर चला आया। क्रोध का नशा उतरा। रातभर अनुताप किया। सुबह फिर चरणों में उपस्थित हुआ। सिर चरणों में रख दिया। कहा-क्षमा करो! बुद्ध ने कहा-'किस बात की। मैं प्रेम ही करता हूं। चाहे कोई कुछ भी करे। प्रेम के सिवा मेरे पास और कुछ है ही नहीं।'
सूफी साधक वायजीद रात को अपनी मस्ती में भजन करते जा रहे थे। सामने एक युवक बाजे पर संगीत गाता हुआ आ रहा था। उसे वह भजन व्यवधान लगा। बाजे को वायजीद के सिर पर पटका और गालियां दी। बाजा टूट गया। सुबह वायजीद ने अपने आदमी के साथ एक मिठाई का थाल और पैसे भेजे। युवक ने पूछा क्यों? उस आदमी ने कहा- 'आपका बाजा टूट गया, इसलिए ये पैसे और गालियों से मुंह खराब हो गया इसलिए यह मिठाई भेजी है। युवक बड़ा शर्मिन्दा हुआ।
ब्रांकेई साधक के पास टोकियो युनिवर्सिटी का दर्शन-शास्त्री प्रोफेसर आया और पूछा 'धर्म क्या है? सत्य क्या है? ईश्वर क्या है?' बांकेई ने कहा-'इतनी दूर से चल कर आये हो, विश्राम करो, पसीना सुखाओ और चाय पीओ। शायद चाय से उत्तर मिल जाए।' उसने सोचा-क्या पागल है? कहां आ गया? खैर, रुका। चाय लेकर आया, कप भर दिया। नीचे तश्तरी थी वह भी भर गई। फिर भी बाकेई चाय उडेल रहा था। प्रोफेसर ने कहा-आप क्या कर रहे हैं? कहां है अब जगह? बांकेई ने कहा मैं भी तो यही देखता हूं कि तुमने प्रश्न तो इतने बड़े पूछे हैं, किन्तु भीतर जगह कहां है? जब खाली हो तब आना। उठकर चलने लगा। चलते-चलते कहा-अच्छा, खाली होकर आऊंगा। बाकेइ हंसा और बोला-फिर क्या आओगे ?
धूर्त व्यक्ति बाहर मीठा होता है और भीतर अशुद्ध। वह विश्वास योग्य नहीं होता। खुला कुंआ खतरनाक नहीं होता। वह स्पष्ट होता है। किन्तु ऊपर से ढंका हुआ कुंआ खतरनाक होता है। एक बुढ़िया शहर से सामान खरीदकर अपने गांव लौट रही थी। कुछ देर बाद पीछे से एक घुड़सवार आया। वह उस गांव में ही जा रहा था। बुढ़िया ने पूछा और कहा-यह मेरी गठरी चौराहे पर रख देगा क्या भाई? घुड़सवार ने एक बार इन्कार कर दिया। थोड़ी दूर जाकर सोचा-न यह मुझे जानती है और न मैं इसे। अपने घर ले जाता गठरी। वापिस लौटा और मधुर स्वर में कहा-मां। लाओ गठरी ले जाऊं? बुढ़िया समझ गई। वह बोली-बेटा ! जो तेरे मन में कह गया वह मेरे कान में भी कह गया। अब मैं ही ले जाऊंगी।