
गुरुवाणी/ केन्द्र
प्राण जाए पर धर्म न जाए : आचार्यश्री महाश्रमण
नौ दिवसीय वाव प्रवास का अंतिम दिन। भक्तों के भगवान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारे जीवन में भक्ति और समर्पण का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है। जो कोई विशिष्ट हो, उसके प्रति भक्ति संगत हो सकती है। शास्त्र में चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है। नमन करना भक्ति का एक रूप है। नमन महान आत्माओं और अर्हतों को किया गया है। तीर्थंकर धर्म के प्रवर्तक होते हैं।
जैन शासन में णमोकार महामंत्र का बड़ा महत्व है। पांचों पदों में णमो की बात आई है। धर्म के संदर्भ में तीर्थंकर से बड़ा कोई प्रवचनकार नहीं होता। अध्यात्म जगत के वे नेता होते हैं। सिद्ध अक्षय, अरूज, अमूर्त आत्मा के रूप में होते हैं। आचार्य धर्म संघ के सारथी और संवाहक होते हैं। उपाध्याय आगम पठन-पाठन के अधिकृत अध्यापक होते हैं। साधु साधना में लीन रहने वाले, अनिकेत होते हैं। लोक के सब शुद्ध साधुओं को नमस्कार किया गया है। साधु तो केवली समुद्घात की अपेक्षा से पूरे लोक में मिल सकते हैं, पर अर्हत, सिद्ध, आचार्य और उपाध्याय सीमित क्षेत्र में ही होते हैं। भक्ति में सघनता का तारतम्य हो सकता है। आदर्श, सिद्धांत और नियमों के पालन के प्रति भी भक्ति हो सकती है। प्रभु और प्रभु के पंथ के प्रति भक्ति होनी चाहिए। भक्ति का उत्कृष्ट स्वरूप अर्हन्नक श्रावक में देखा जा सकता है — 'प्राण जाए तो जाए पर मैं धर्म नहीं छोड़ सकता।' धर्म कोई कपड़ा नहीं है जिसे पहना और उतार दिया जाए। धर्म रूपी चेतना भिन्नता को सहन नहीं कर सकती। चाहे घर में हो या धर्मस्थान में, धर्म तो आत्मा में होना चाहिए। धर्म के प्रति हमारी अगाढ़ आस्था हो। दृढ़धर्मी श्रावक बनें। साधु भी धर्म को न छोड़ें, चाहे देह भी छूट जाए। धर्म कमाई ही एक ऐसा तत्व है जो आगे साथ जा सकता है। संवर-निर्जरा की कमाई ही आगे जा सकती है; धन आगे नहीं जाता।
वाव प्रवास के संदर्भ में कहते हुए गुरुदेव ने कहा कि पूर्व में छापर प्रवास के समय वाव में सात दिवस प्रवास का कहा था। आज वाव प्रवास का नवम और अंतिम दिवस है। वाव के अन्य समाज के लोगों ने भी प्रवचन आदि का लाभ लिया। यहां सबमें धर्म के प्रति मजबूती रहे। धर्म को कठिनाई में भी न छोड़े। बाहर जगह-जगह से वाव के लोग यहां आएं। हमारे श्रद्धालु श्रावक-श्राविकाओं में धर्म के अच्छे संस्कार बने रहे। हमारा प्रवचन कार्यक्रम राणाजी के स्थान पर हो रहा है। राणा परिवार में भी खूब धार्मिकता बनी रहे। साध्वीवर्याजी ने कहा कि जीवन में आकृति का थोड़ा मूल्य है, पर स्वभाव का अधिक मूल्य होता है। हमारा स्वभाव गुणों से अच्छा बन सकता है। हम गुणग्राही बनें। स्वर्ण में अनेक विशेषताएँ होती हैं। उसके गुणों को हम जीवन में उतारें। सोने में कोमलता और सहनशीलता होती है। कोमलता से करुणा आती है, करुणा से अहिंसा की भावना जागती है। नम्रता, विनम्रता और मृदुता के गुण कोमलता से आ सकते हैं।
व्यवस्था समिति संयोजक विनीतभाई संघवी, केश भाई मेहता, प्रवीणभाई, चंपक भाई मेहता, वीर परिख, शिल्पा मेहता, विरल संघवी, अर्हता मेहता, मीना बेन ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति दी। संघ समर्पण गाथा के अंतर्गत सवाचंद भाई, मोती चंद डोशी, परषोत्तम भाई, शाखल चंद भाई डोशी परिवारों ने अपनी प्रस्तुति दी। वाव पथक भजन मंडली, महिला मंडल की बहनों ने गीतों की प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।