जीवन जीने की कला है कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

वाव। 20 अप्रैल, 2025

जीवन जीने की कला है कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक : आचार्यश्री महाश्रमण

मैत्री के महानिर्झर आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अध्यात्म रस बहाते हुए फरमाया कि हमारे जीवन में कर्तव्य और अकर्तव्य का बोध होना अत्यंत हितकारी है। जिस व्यक्ति को अपने कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान नहीं होता, वह पतन की ओर अग्रसर हो सकता है। कर्तव्य-अकर्तव्य को न जानने वाले लोग पशु तुल्य हो जाते हैं। कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। संसार में ऐसे पशु भी मिल सकते हैं जो श्रावक हैं, पंचम गुणस्थानवर्ती हैं और जिनमें पूर्वजन्म का ज्ञान भी हो सकता है। वे तिर्यंच जाति के जीव साधना करते हैं और श्रावक के व्रतों का पालन भी करते हैं। वहीं कई मनुष्य ऐसे भी होते हैं जो मिथ्यात्वी, प्रथम गुणस्थानवर्ती होते हैं। विवेक ही भेदरेखा है। जो व्यक्ति अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक रहता है, वह कर्तव्यपरायण बन सकता है।
सांसारिक कर्तव्य भी होते हैं। धार्मिक दृष्टि से देखें तो माता-पिता का कर्तव्य है कि वे अपनी संतानों को अच्छे संस्कार दें और उनके जीवन को धर्ममय बनाएं। छोटे-छोटे बच्चे ज्ञानशाला में जाते हैं, जहां उन्हें अच्छे संस्कार देने का प्रयास किया जाता है। माता-पिता का संतान के प्रति तथा संतान का माता-पिता के प्रति कर्तव्य होता है। सांसारिक सहयोग के साथ धार्मिक साधना में भी सहयोग करना चाहिए। इस प्रकार, संबंधों के आलोक में अनेक प्रकार के कर्तव्यों को देखा जा सकता है। अकर्तव्य से बचने का प्रयास करना चाहिए। साधु का कर्तव्य है कि वह उत्तम साधुता और साधना का जीवन जिए। यही उसका मूल कर्तव्य है।
धर्मगुरु का अपने शिष्यों के प्रति कर्तव्य है कि वह उन्हें अध्ययन कराए, तो शिष्य का भी कर्तव्य है कि वह गुरु की निःस्वार्थ भाव से सेवा करे। गुरु से ज्ञान लेना है तो सेवा भी देनी है। कर्तव्य उभयपक्षीय होता है। जनता का सरकार के प्रति और सरकार व अधिकारियों का जनता के प्रति कर्तव्य होता है। यदि दोनों पक्ष अपने-अपने कर्तव्य के प्रति सजग रहें तो व्यवस्था सुचारु रूप से चल सकती है। धर्मगुरु यदि अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक रहे तो जनता को सन्मार्ग का दर्शन मिल सकता है। हर व्यक्ति का अपना-अपना कर्तव्य होता है। उसे उसके प्रति सजग रहना चाहिए। जिसका जो कर्तव्य है, उसका पूरा पालन होना चाहिए। कर्तव्य पालन में असजगता और प्रमाद न हो। आचार्यश्री भिक्षु ने संघ के लिए मर्यादा और अनुशासन का निर्माण कर कर्तव्य पालन किया, तभी आज तेरापंथ संघ का विकास संभव हो सका है। यदि लीडर में नेतृत्व क्षमता और फॉलोवर में अनुकरण क्षमता अच्छी हो तो विकास संभव है। कर्तव्य के प्रति जागरूकता और अकर्तव्य से परहेज से सभी का कल्याण हो सकता है।
मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में आचार्य श्री से पूर्व साध्वीवर्या संबुद्धयशा जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि हमारा जीवन हमारे हाथ में है कि हम कैसा जीवन जीना चाहते हैं — स्वतंत्र या परतंत्र। जो व्यक्ति स्वतंत्र जीवन जीना चाहता है, उसे प्रतिक्रिया विरति की साधना करनी होगी। हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। प्रतिक्रिया सकारात्मक या नकारात्मक रूप में हो सकती है। हमें किसी के हाथ की कठपुतली नहीं बनना है। हमें रिएक्शन प्रूफ बनना है, तभी हम स्वतंत्र जीवन जी सकेंगे। इस अवसर पर कार्यक्रम में दिलीप भाई डोशी, राजपूत समाज से ईश्वर भाई चारडिया, पिंकेश भाई मेहता ने अपने विचार रखे। तुलसी सेवा दल के सदस्यों ने गीत का संगान किया। मावसरी-कुंभारखा परीख परिवार ने गीतिका की प्रस्तुति दी। वाव पथक सूरत ज्ञानशाला ने अभिवन्दना में प्रस्तुति दी। बालोतरा ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों तथा प्रशिक्षिकाओं ने भी प्रस्तुति दी। बालोतरा के ज्ञानार्थियों ने संकल्प पुष्प पूज्यवर के श्रीचरणों में अर्पित किए। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।