
गुरुवाणी/ केन्द्र
द्वन्द की स्थिति में भी रहें सम : आचार्यश्री महाश्रमण
जन-जन का मंगल करने वाले आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आर्षवाणी की अमृत वर्षा कराते हुए फरमाया कि शास्त्रकार ने एक दृष्टान्त दिया है - आसक्ति और अनासक्ति को समझने के लिए। एक गीली मिट्टी का गोला जब दिवाल पर फेंका तो मिट्टी दिवाल पे चिपक गई और सूखी मिट्टी का गोला दिवाल पर फेंका तो मिट्टी दिवाल पर चिपकी नहीं, नीचे गिर गई। इन दोनों गोलों से यह समझाने का प्रयास किया गया है कि आसक्तिमान वह है जो पदार्थों-विषयों से चिपका रहता है और जो अनासक्त होता है, वह चिपकता नहीं है। आसक्ति-अनासक्ति ये अध्यात्म और भौतिक दृष्टिकोण को बताने वाले तत्व हैं। कर्मों का बन्धन होता है, उस सन्दर्भ में ज्ञातव्य है कि आसक्ति के साथ कार्य किया जाता है तो कुछ सघन कर्मों का बन्ध हो सकता है। वहीं यदि कार्य अनासक्त भाव से होता है तो पाप कर्म की सघनता से बचाव हो सकता है। सघन कर्म बन्धन से आगे दुर्गति हो सकती है। अस्वाद वृत्ति वाला साधु पदार्थों में उलझता नहीं है। साधु और गृहस्थ की खाने की वृत्ति में भाव धारा का अन्तर रह जाता है। साधु खाने-पीने में कोई राग-द्वेष नहीं करते हैं। ऊपर की स्थिति में समानता हो सकती है पर भीतरी स्थिति में असमानता होती है।
गार्हस्थ्य में भी अनासक्त रहने का प्रयास करना चाहिये। धन का क्या भरोसा है, क्योंकि लक्ष्मी को चंचला कहा गया है। पदार्थ साधन है, साध्य नहीं है। किसी भी स्थिति में आसक्ति या तनाव न आये। कर्तव्य भावना से कार्य करें, मोह भावना से नहीं। मोह ज्यादा है तो दुःख आ सकता है। हर स्थिति में समभाव रहे। अनुकूलता हो या प्रतिकूलता, साधु प्रशंसा या निंदा न करें, समता रखे।आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है पर इच्छाएं तो असीमित हैं। इच्छाओं का परिसीमन हो। पदार्थ के उपभोग में संयम रखें। आदमी आसक्ति से बचें। गुरुदेव तुलसी ने कितनों को दीक्षित और शिक्षित किया था। कितना उनका सम्पर्क था। उनके जीवन का एक पक्ष अनुकूलता का है तो दूसरा प्रतिकूलता का भी है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी प्रेक्षाध्यान करवाते थे कि न प्रियता और न अप्रियता, दोनों से से मुक्त रहकर देखना। आचार्यश्री भिक्षु ने कितना समभाव रखा था, विरोधों में भी सम रहे। बात-बात में प्रतिबोध दे देते थे। हम अनासक्ति के प्रति जागरूकता रखें, यह काम्य है।
साध्वीवर्या श्री संबुद्धयशा जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि दुनिया में ऐसे लोग तो बहुत मिलते हैं जो कमियां देखते हैं, परन्तु कमियों का सुधार करने वाले बहुत कम लोग होते हैं। कमियों का सुधार करने का सामर्थ्य गुरु में होता है। धर्मगुरु ज्ञान और चारित्र से उन्नत होते हैं और अपनी सर्वगुण सम्पन्नता से व्यक्तियों का निर्माण करते हैं। हम सौभाग्यशाली हैं कि हमें ऐसे धर्म गुरु मिले हैं। पूज्यवर के स्वागत में वाव प्रवास व्यवस्था समिति की ओर से नरेश परीख, वाव भजन मंडली ने गीत से अपनी भावभिव्यक्ति दी। ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों एवं कन्या मंडला ने सुन्दर प्रस्तुति दी। प्रवीण भाई मेहता, परीख परिवार एवं उपासक अशोक भाई संघवी ने भी अपनी भावना रखी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।