
गुरुवाणी/ केन्द्र
संवर और निर्जरा से प्राप्त होती है शांति : आचार्यश्री महाश्रमण
धर्मधुरंधर आचार्यश्री महाश्रमणजी ने वर्धमान समवसरण में आगमवाणी की वर्षा करते हुए फरमाया कि व्यक्ति के मन में शांति से जीने की भावना भी रह सकती है। सुखपूर्वक जिएं, तनाव, चिंता और भय न हो। शांति में जीना अच्छा है, परंतु व्यक्ति शांति में जीते हुए कठिनाइयों से डरता रहे — यह उचित नहीं। शांतिमान व्यक्ति में साहस भी होना चाहिए। आवश्यकता हो तो क्रांति करने का साहस भी होना चाहिए। अर्हत वंदना के पहले पद्य का अर्थ है — जो बुद्ध हुए हैं और जो बुद्ध होंगे, उनका आधार शांति है। जैसे प्राणियों का आधार पृथ्वी है, वैसे ही बुद्धों का आधार शांति है। तीर्थंकर केवलज्ञानी बने हैं, पर केवलज्ञान तब तक प्राप्त नहीं होता जब तक मोहनीय कर्म समाप्त न हो जाए। अशांति का मूल कारण मोहनीय कर्म है। तीर्थंकर वही बन सकता है जो क्षीण मोह बनता है। उपशांत मोह बनने से बुद्धत्व प्राप्त नहीं होता। ग्यारहवाँ गुणस्थान तो बंद गली जैसा है, उसमें जो प्रवेश करेगा, उसे वापस नीचे के गुणस्थान में ही आना होगा। मोह का नाश करेंगे, तभी बुद्ध बनेंगे।
सामान्य व्यक्ति भी शांति चाहता है। खुद शांति में रहें और दूसरों को भी शांति में रहने दें। शांति को प्राप्त करने के लिए हमें कुछ बाधाओं पर ध्यान देकर उन्हें दूर करने का प्रयास करना चाहिए। शांति में एक बाधा है — गुस्सा। अनुप्रेक्षा से गुस्से को प्रतनू बनाने का प्रयास करें। अधिक चिंता भी न करें। गृहस्थों को रोटी-पानी, कपड़े, मकान, गहने-आभूषण, शादी, संतान, इष्ट इंद्रिय विषयों की चाह रहती है। इनके रहते व्यक्ति कैसे शांति को प्राप्त करेगा? चिंता नहीं, चिंतन करो। चिंता, भय, गुस्सा और लोभ से मुक्त रहने का प्रयास करें। चिंता तो चिता के समान होती है। चिता निर्जीव को जलाती है, चिंता सजीव को जलाती है। जो हितोपदेश को नहीं मानता, उस पर गुस्सा मत करो — अपना सुख मत खोओ। इस जीवन में शांति होना पुण्य का योग है। जो अनुकूलताएँ प्राप्त हैं, वे पूर्व पुण्य का फल हैं। आगे के लिए पुण्य संचय करें। पुण्य भी कर्म पुद्गल है। हम निर्जरा का प्रयास करते रहें — अन्य किसी विषय में न भटकें और न लटकें। संवर, निर्जरा और मोक्ष पर ध्यान दें।
संसार के सुख तो नश्वर हैं। मोक्ष का सुख शाश्वत है। हमें तो मोक्ष पाना है। इसके लिए संवर-निर्जरा की साधना करें। पुण्य कर्म छूटेंगे तभी मुक्ति मिलेगी। हमें पुण्य की कामना नहीं करनी चाहिए। हमें यह मनुष्य जन्म मिला है — इसका अच्छा लाभ उठाएँ। जप-तप और धर्म में रहें। आचार्यश्री भिक्षु ने क्रांति की थी। गुरुदेव तुलसी ने भी कितनी लंबी यात्रा की थी। श्रम करो, सफल बनो। सफलता का पौधा परिश्रम के सिंचन से ही बढ़ता है। शांति और क्रांति दोनों का महत्व है। पुरुषार्थ करते हुए जीवन में आगे बढ़ने का प्रयास करें। पुरुषार्थ की लौ जलती रहे। हम संवर और निर्जरा की साधना करते हुए मोक्ष की दिशा में आगे बढ़ते रहें।
पूज्यप्रवर के मंगल प्रवचन के उपरांत साध्वीवर्याजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि भगवान महावीर ने हमें चार सुख शैय्याएँ बताकर शांति का पाठ पढ़ाया है। निर्ग्रंथ प्रवचन में अटल श्रद्धा हो। श्रद्धा संसार-सागर से पार लगा सकती है। हमारी श्रद्धा खंडित न हो। देव, गुरु और धर्म के प्रति हमारी अखंड श्रद्धा हो, जिससे हम जन्म-मरण से मुक्ति पा सकें। श्रद्धा के साथ अखंड धैर्य भी हो। हमारे जीवन में समता के भाव आएँ। पूज्यवर की अभिवंदना में साध्वी हेमयशाजी और साध्वी आराधनाश्रीजी ने अपनी जन्मभूमि पर भावों की अभिव्यक्ति दी। वाव पथक मूर्तिपूजक जैनसंघ अहमदाबाद के प्रमुख रमेशभाई वाडीलाल मेहता, यश्वी केशभाई मेहता, अंकेश भाई डोशी ने अपने विचार रखे। मगनलाल न्यालचंद मेहता, खेतसी भाई केवलदास मेहता, स्वरूपचंद भाई वीरचंद भाई मेहता, चिमनलाल डायलाल भाई मेहता परिवार ने गीत की प्रस्तुति दी। वाव ज्ञानशाला एवं कन्या मंडल अहमदाबाद ने स्वागत में प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।