प्रशस्त चिन्तन या अचिन्तन की दिशा में बढ़ें आगे : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

वाव। 17 अप्रैल, 2025

प्रशस्त चिन्तन या अचिन्तन की दिशा में बढ़ें आगे : आचार्यश्री महाश्रमण

भैक्षव शासन सरताज, आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि व्यक्ति के भीतर संकल्प-विकल्प निरंतर उठते रहते हैं, जैसे जल में तरंगें उठती हैं। उसी प्रकार, हमारे मन रूपी जल में विचारों की तरंगें उत्पन्न होती हैं, और मन तरंगित हो जाता है। प्रश्न यह है कि आत्मा का साक्षात्कार कौन कर सकता है? वही व्यक्ति आत्म तत्व को देख सकता है, जिसके मन रूपी जल में राग-द्वेष आदि की तरंगें नहीं उठतीं। जिसके मन में समत्व का भाव है, वही आत्मा का दर्शन कर सकता है। अन्य कोई व्यक्ति आत्मा को नहीं देख पाता। राग-द्वेष से मन में गुस्सा, अहंकार, छल-कपट आदि भाव उत्पन्न हो जाते हैं। किसी के प्रति द्वेष, तो किसी के प्रति राग के भाव जाग सकते हैं। किंतु जो व्यक्ति समतावान बन जाता है, उसके संकल्प-विकल्प शांत हो जाते हैं।
आचार्यश्री ने समझाया कि श्वान वृत्ति और सिंह वृत्ति में फर्क होता है। श्वान वृत्ति ऊपर-ऊपर देखने की वृत्ति है, जबकि सिंह वृत्ति मूल कारण तक जाने की वृत्ति है। हमें भी समस्याओं के मूल कारण पर ध्यान देना चाहिए। समता में स्थित व्यक्ति के संकल्प-विकल्प नष्ट हो जाते हैं। जीवन में कार्य करते हुए भी मन में विचार उठते ही रहते हैं। प्रेक्षा ध्यान की साधना मन की चंचलता को शांत करने का अद्भुत साधन है। हम सोचते हैं, और सोचने में तीन स्थितियाँ हो सकती हैं:
1. अशुभ चिन्तन (दुर्विचार)
2. शुभ चिन्तन (सुविचार)
3. अचिन्तन (निर्विचारता)
हम मन को अशुभ से शुभ की ओर ले जाएँ; निर्विचारता तो साधना की पराकाष्ठा है। चिन्तन के द्वारा हम दुःखी भी हो सकते हैं और सुखी भी। दिशा बदली, दशा बदल गई। वास्तविक चिन्तन पर ध्यान दें। अनुकूलताओं को देखें, प्रतिकूलताओं में उलझने की आवश्यकता नहीं। जो व्यक्ति विषयों में संकल्प नहीं करता, उसकी तृष्णाएँ भी क्षीण हो जाती हैं। आचार्यश्री ने कहा — 'हम मानसिक शांति पाने के लिए अपना चिन्तन सकारात्मक रखें। दृष्टिकोण को सम्यक् रखें। अग्र और मूल का विवेक करें, कारण और कार्य को समझें। कारण पता हो तो समस्या का समाधान सहज मिल जाता है। हम प्रशस्त चिन्तन या अचिन्तन की दिशा में बढ़ें।'
साध्वीवर्याजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि परिवर्तन शाश्वत है। परिवर्तन दो प्रकार के होते हैं — एक नैसर्गिक और दूसरा पुरुषार्थ से प्रेरित। जीव और पदार्थ की पर्यायें निरंतर बदलती रहती हैं। स्वभाव को बदला नहीं जा सकता, किंतु आध्यात्मिक साधना के द्वारा स्वभाव को सुंदर बनाया जा सकता है। भीतर दृढ़ संकल्प होना चाहिए। हम अपनी कमियों को मिटाकर स्वयं को निखारें। मोहनीय कर्म पर प्रहार कर अपना स्वभाव उज्ज्वल बनाएं। पूज्यवर की अभिवंदना में मुनि अक्षयप्रकाशजी और मुनि निकुंजकुमारजी ने भावपूर्ण अभिव्यक्ति दी। मेहता शाम जी भाई छगन जी भाई परिवार ने गीत की प्रस्तुति दी। रेशमा मेहता ने भावों की अभिव्यक्ति दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।