
गुरुवाणी/ केन्द्र
स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा में श्रुतज्ञान होता है महत्वपूर्ण : आचार्यश्री महाश्रमण
आचार्यश्री तुलसी और आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की प्रतिकृति आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारे पास औदारिक शरीर है। जैन वाङ्मय में पाँच प्रकार के शरीर बताए गए हैं — औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण शरीर। औदारिक शरीर- मनुष्य और तिर्यंच प्राणियों का होता है। वैक्रिय शरीर- मुख्यतः देवताओं और नारकीय जीवों का होता है; मनुष्य और तिर्यंच गति में यह कहीं-कहीं स्वल्पकालीन रूप में पाया जा सकता है। आहारक शरीर- किसी-किसी विशिष्ट साधक को प्राप्त होता है। तेजस और कार्मण शरीर- सभी संसारी जीवों में होते हैं, जो एक जन्म से दूसरे जन्म तक साथ चलते हैं। जब तक मोक्ष प्राप्त न हो, ये दोनों शरीर जीव के साथ रहते हैं।
आचार्यश्री ने कहा कि हमारे पास यह स्थूल औदारिक शरीर है, जिसमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ — श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन और स्पर्श — होती हैं। इनके अतिरिक्त हाथ, पाँव आदि पाँच कर्मेन्द्रियाँ भी होती हैं। यदि वक्ता अच्छा हो और श्रोता भी सजग हो, तो ज्ञान का आदान-प्रदान सफलतापूर्वक हो सकता है। एक ज्ञानी वक्ता यदि मन से बोले और हितोपदेश दे, तो वह स्वयं पर भी अनुग्रह करता है और श्रोताओं पर भी। आचार्यश्री ने आगे कहा कि प्रवचनकर्ता यदि तैयारीपूर्वक बोले, तो उसका वचन प्रभावी होता है। उपासक श्रेणी के व्यक्तियों को पर्युषण आदि अवसरों पर प्रवचन करना पड़ता है; ऐसे में नव्यता और भव्यता का समावेश बना रहना चाहिए। श्रोता भी समीक्षात्मक बुद्धि से श्रवण करें, थोड़ी तर्क-जिज्ञासा रखें। एक अच्छा श्रोता वक्ता को भी सचेत कर सकता है।
श्रवण के अनेक लाभ हैं — सामायिक करते समय प्रवचन श्रवण से सावद्य कार्यों से बचा जा सकता है; नई जानकारियाँ प्राप्त होती हैं और पुरानी जानकारियाँ पुष्ट होती हैं। समस्या के समाधान भी मिल सकते हैं। श्रवण से सामग्री एकत्रित कर कोई श्रोता भी भविष्य में अच्छा वक्ता बन सकता है। वक्ता और श्रोता एक सुन्दर जोड़ी होते हैं। सुनते समय जागरूकता होनी चाहिए। अच्छी बातें ध्यान से ग्रहण करें और जीवन में उतारने का प्रयास करें। श्रवण से मनुष्य पाप और पुण्य दोनों के स्वरूप को जान सकता है। जानने के बाद श्रेयस्कर मार्ग का चयन कर उसके अनुसार आचरण करना चाहिए। हमें कानों के माध्यम से अच्छी बातें सुनकर, उन्हें जीवन में अपनाकर कल्याण का साधन बनाना चाहिए।
पूज्य प्रवर के सान्निध्य में 'डिकरी वाव तेरापंथ नी' सम्मेलन का भी आयोजन हुआ। आशीर्वचन फरमाते हुए पूज्यवर ने कहा कि जिस परिवार में भी रहना हो, धर्म सदा हमारे साथ रहना चाहिए। अर्हन्नक श्रावक की भांति विषम, कठिन परिस्थिति में भी धर्म के प्रति दृढ़ता के भाव भीतर में रहे। बेटियों का पीहर से भी संबंध और ससुराल में भी संबद्ध होता है। कहा गया कि बेटी पीहर में भी उजाला कर सकती है और ससुराल में भी धर्म का प्रकाश कर सकती है। सभी में धर्म के प्रति निष्ठा बनी रहे, त्याग, संयम की साधना रहे और परिवार भी संस्कार युक्त हो ऐसा प्रयास रहना चाहिए। इस अवसर पर दीपिका लालन ने अपने विचार रखे। बहनों ने मंगलाचरण का संगान किया। विभिन्न बहनों ने मिलकर काव्य, भाषण आदि की प्रस्तुति दी।
साध्वीवर्या श्री संबुद्धयशाजी ने अपने संबोधन में कहा कि हमें अपने जीवन की मूल्यता को बनाए रखना चाहिए। जीवन की मूल्यता बढ़ाने में 'समय' की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका है। हमें समय का सम्मान करना सीखना चाहिए। काल के प्रदेश नहीं होते, इसलिए समय को पकड़ा नहीं जा सकता। समय निरंतर गतिशील है — उसके पाँवों में पंख लगे हैं। हमें समय का भरपूर सदुपयोग करना चाहिए। पूज्यवर की अभिवंदना में साध्वी अक्षयप्रभाजी, साध्वी धन्यप्रभाजी और समणी निर्मलप्रज्ञाजी ने अपनी जन्मभूमि में अपनी भावनाएँ व्यक्त कीं। डुंगरसी मेहता परिवार ने भी भावपूर्ण प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।