प्रज्ञा के परम पुंज-आचार्य श्री महाप्रज्ञ

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साध्वी केवलयशा

प्रज्ञा के परम पुंज-आचार्य श्री महाप्रज्ञ

वे दीप नहीं, दिशा थे।
वे मुनि नहीं, मौन की महिमा थे।
वे वाणी नहीं, वाणी के व्रती थे।
वे जीवन नहीं, जीवन से परे जीवन-संकेत थे।
पंद्रह वर्ष बीत गए।
पर ऐसा लगता है, जैसे उन्होंने
अभी-अभी प्रेक्षा ध्यान सिखाया है।
जैसे अभी-अभी अहिंसा यात्रा के चरण यथावत धूल में पड़े हैं।
जैसे अभी-अभी उन्होंने कहा है –
'क्रोध नहीं, करुणा रखो। विवाद नहीं, संवाद रखो।'
एक ऋषि, जो युग की भाषा बोलता था।
जहाँ धर्मगुरु केवल आशीर्वाद देते हैं, वहाँ उन्होंने प्रश्न पूछना सिखाया।
जहाँ साधु केवल तप करते हैं, वहाँ उन्होंने विज्ञान और अध्यात्म को एक सूत्र में बाँधा।
उन्होंने कहा–
'धर्म का आधार डर नहीं, दृष्टि होनी चाहिए।'
वे परंपरा के पथिक थे,
पर दृष्टिकोण में अद्भुत नव्य चिंतन था।
उन्होंने कहा –
'संघ को यदि जीवित रखना है,
तो संवाद को जीवंत रखना होगा।'
स्मृति की धूप में बसी छाया...
अब सोलहवें वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं।
क्या हम उन्हें केवल चित्रों में, मंचों पर, या पुस्तकों के पृष्ठों में सीमित कर देंगे?
नहीं।
महाप्रज्ञ को समझना है तो प्रेक्षा के मौन में उतरना होगा।
महाप्रज्ञ को जीना है तो अहिंसा को साँसों में भरना होगा।
उनकी मौनता, उनका संवाद थी।
जब वे चुप रहते थे, तो विचार गूँजते थे।
जब वे चलते थे, तो शब्द पीछे-पीछे चलते थे।
उनका एक वाक्य किसी युवा के लिए संकल्प,
किसी वृद्ध के लिए संबल,
किसी संशयी के लिए प्रकाश था।
आज के युग के लिए उनकी वाणी –
'दुनिया तकनीक से नहीं बचेगी, सहिष्णुता से बचेगी।
विकास का आधार बुद्धि नहीं, संवेदना होना चाहिए।
धर्म का मापदंड चमत्कार नहीं, चरित्र होना चाहिए।
श्रद्धांजलि नहीं, उत्तरदायित्व होना चाहिए।'
आज सोलहवाँ वर्ष है –
हम पुष्प अर्पित करें, पर केवल फूल नहीं,
अपने जीवन को ही पुष्प बनाएं।
सोलहवें वर्ष की इस पुण्य वेला में –
महाप्रज्ञ को न केवल श्रद्धा,
बल्कि अपने कर्मों से, स्मरण की नहीं,
समर्पण की भाषा दें।
आचार्य महाप्रज्ञ को श्रद्धांजलि केवल शब्दों से नहीं,
बल्कि विचारों के रूपांतरण से दी जा सकती है।
आज, जब उनके देवलोकगमन का
सोलहवाँ वर्ष स्मृति में आता है,
तो यह केवल किसी आचार्य या
युगप्रधान का स्मरण नहीं वे युगपुरुष थे।
उन्होंने संघ का संचालन किया,
लेकिन चेतना का संचालन भी किया।
उन्होंने मुनियों को संयम सिखाया,
पर जन-जन को जीवन जीने की कला दी।
जहाँ विचारधाराएँ संघर्ष में उलझती हैं,
उन्होंने अहिंसा यात्रा के माध्यम से संवाद का सेतु बनाया।
एक ऋषि, जिसकी वाणी से भविष्य बोला –
इस युग को धर्म नहीं,
धर्म का आचरण चाहिए।
यही उनका संदेश था।
श्रद्धांजलि नहीं – साझी जिम्मेदारी।
प्रश्न यह नहीं कि उन्होंने क्या दिया,
प्रश्न यह है कि हमने क्या अपनाया?
क्या हम संवेदना की संस्कृति को आगे बढ़ा पाए?
क्या हम विवाद से संवाद की ओर बढ़ पाए?
अगर नहीं, तो सच्ची श्रद्धांजलि
उनके विचारों की व्याख्या नहीं,
बल्कि उनके विचारों की जीवंत अभिव्यक्ति है।
एक युग, जो अब भी उनके साथ चल रहा है।
महाप्रज्ञ कभी गए नहीं –
जब तक हम प्रेक्षा कर सकते हैं,
जब तक हम अहिंसा सोच सकते हैं –
तब तक वे यहीं हैं, हमारे बीच।